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सर्वोदय और समाज | १६३
व्यक्ति एक स्वार्थी और एक खुदपसन्द के रूप में जीवन प्रारम्भ करता है, परन्तु आगे चलकर धीरे-धीरे उसकी सामाजिक चेतना और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना विकसित होती है । समाजशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में संकुचित, अहंकारी और स्वार्थी इच्छाएँ प्रबल रहती हैं यहाँ तक कि कुछ घटनाओं में वे जीवन पर्यन्त भी स्थायी रह सकती हैं। वास्तव में उसकी जन्मजात एवं आन्तरिक शक्ति इतनी प्रबल होती है, कि मनुष्य का सारा जीवन उसको नियन्त्रित करने और उनका समाजीकरण करने में व्यतीत हो जाता है । समाजशास्त्र के प्रसिद्ध पण्डित फिटर के अनुसार समाज में समाजीकरण एक व्यक्ति और उसके साथी मनुष्यों के बीच, एक-दूसरे को प्रभावित करने की प्रक्रिया है, यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके फलस्वरूप सामाजिक व्यवहार के विभिन्न ढंग स्वीकार किए जाते हैं और उनके साथ सामञ्जस्य किया जाता है । समाजशास्त्र में समाजीकरण की व्याख्या दो दृष्टिकोणों से की जाती हैवैषयिक दृष्टि से, जिसमें समाज व्यक्ति पर प्रभाव डालता है, और प्रातीतिक दृष्टि से, जिसमें व्यक्ति समाज के प्रति प्रतिक्रिया करता है । वैषयिक दृष्टि से, समाजीकरण एक वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा समाज अपनी संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करता है और संगठित सामाजिक जीवन के स्वीकृत और अनुमोदन प्राप्त ढंगों के साथ, व्यक्ति का सामञ्जस्य करता है। इस प्रकार समाजीकरण का कार्य व्यक्ति के उन गुणों, कुशलताओं, और अनुशासन को विकसित करना है, जिनकी व्यक्ति को आवश्यकता होती है, उन आकांक्षाओं और मूल्पों तथा रहने के ढंगों की व्यक्ति में समाविष्ट और उत्तेजित करना है, जो किसी विशेष समाज की विशेषता है और विशेषकर उन सामाजिक कार्यों को सिखाना है, जो समाज में रहने वाले व्यक्तियों को करना है । समाजीकरण की प्रक्रिया निरन्तर रूप से व्यक्ति पर बाहर से प्रभाव डालती रहती है । यह केवल बच्चों और देशान्तर में रहने वालों को, जो पहली बार समाज में आते हैं। केवल उन्हें ही प्रभावित नहीं करती, बल्कि समाज के प्रत्येक सदस्य को उसके जीवन पर्यन्त प्रभावित करती है । समाजीकरण की प्रक्रिया उनको व्यवहार के वे ढग प्रदान करती है, जो समाज और संस्कृति को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं ।
व्यक्ति का समाजीकरण :
प्रातीतिक दृष्टि से समाजीकरण एक वह प्रक्रिया है, जो समाज के
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