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________________ सर्वोदय और समाज | १६५ लोगों के प्रति ब्यवहार में वह समाज-विरोधी भी हो सकता है। दूसरी ओर कुछ व्यक्ति अपने परिवार के सदस्यों अथवा कुछ पड़ोसियों के प्रति अन्यायी और स्वेच्छाचारी हो सकते हैं, परन्तु साथ ही अपने ग्राहकों के प्रति वे सद्व्यवहार रख सकते हैं। एक अर्थ में समाजीकरण सामाजिक क्रियाओं में भाग लेना है। समाज की क्रियाओं में व्यक्ति भाग तभी ले सकता है, जबकि उसमें सामाजिकता का विकास हो चुका हो । सामाजिकता का अर्थ है-अनेकता में एकता स्थापित करना । समाज में जितने भी प्रकार के व्यक्ति रहते हैं, समान हित के कारण उनके साथ एकीकरण करना ही वस्तुतः समाज में रहने वाले व्यक्ति की सामाजिकता, कही जाती है। समाज-शास्त्र: मैं आपसे समाज और सामाजीकरण के सम्बन्ध में कह रहा था। समाजशास्त्र का अध्ययन करने वाले प्यक्ति, भली-भांति इस बात को समझते हैं, कि समाजीकरण का जीवन में क्या महत्व है? मेरे अपने विचार में जो व्यक्ति अपना सामाजीकरण नहीं कर सकता, उसका जीवन उसके लिए भारभूत बन जाता है । अपने स्वयं के व्यक्तित्व को समाज के सामूहिक जीवन के अन्दर विलान कर देना ही है, मेरे विचार में सच्चा सामाजीकरण है । सामाजोकरण को प्रक्रिया युग-भेद से अथवा परिस्थिति के कारण विभिन्न हो सकती है, किन्तु जीवन-विकास के लिए समाजीकरण प्रत्येक युग में उपादेय रहा है और भविष्य में भी वह उपादेय रहेगा। यदि व्यक्ति अपने अहंकार में रहे और वह अपने आपको समाज के जीवन में विलीन न करे, तो वह जोवित कैसे रह सकता है । सामाजिक मनोवत्ति वाला व्यक्ति उस ब्यापार को नहीं करेगा, जिससे समाज को किसी प्रकार का लाभ न हो। जिस व्यक्ति ने अपना सामाजीकरण कर लिया है, वह व्यक्ति अपने व्यक्तिगत लाभ को अपेक्षा समाज के लाभ को अधिक महत्व देता है। वह व्यक्ति अपने व्यक्तिगत सुख को अपेक्षा सामाजिक सुख को अधिक महत्व देता है, वह व्यक्ति यथावसर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को ठकरा देता है और प्रत्येक स्थिति में समाज के हित का ध्यान रखता है ! जब तक व्यक्ति में सर्वोच्च रूप में सामाजिक भावना का उदय नहीं हो पाता है, तब तक वह अपने व्यक्तित्व का समाजीकरण नहीं कर सकता। प्रश्न उठता है, कि समाजीकरण के साधन क्या हैं ? समाजीकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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