SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ । अपरिग्रह-दर्शन अब प्रश्न यह उपस्थित होता है, कि जब एक व्यक्ति अपने आश्रयी समाज का एक आश्रय है, तब उसका अलग अस्तित्व किस आधार पर सम्भव हो सकता है । वही आधार है, व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व । प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक व्यक्तित्व होता है, जिससे आधार पर वह अनेक में रहकर भी एक रहता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व पुष्प की सुगन्ध के समान होता है । जिस प्रकार देखने वाले को फूल ही दिखलाई पड़ता है। उसकी सुगन्ध नेत्र-गोचर नहीं होती है, परन्तु प्रत्येक पुष्प की सुगन्ध की अनुभूति अवश्य ही होती है। इसी प्रकार हमें प्रतीति होती है व्यक्ति की, किन्तु जहाँ व्यक्ति है वहाँ उसका व्यक्तित्व फूल की सुगन्ध के समान सदा उसमें रहता है। गृह-रक्षण एव सम्मान करना चाहिए, क्याकि यह सभी अच्छाइयों का आधार है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में बहुत कहा जा सकता है किन्तु यहां पर केवल इतना हो समझना है, कि व्यक्ति और समाज दोनों अलग-अलग नहीं रह सकते । व्यक्ति और समाज : समाज और व्यक्ति का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। आजकल विभिन्न विचारकों में व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध को लेकर बड़ा मतभेद खड़ा हो गया है, परन्तु यह बात सब मानते हैं, कि व्यक्ति और समाज में किसी भी प्रकार का अलगाव और विलगाव करना, न समाज के हित में है और न स्वयं व्यक्ति के हित में है। वास्तव में समाज की कल्पना व्यक्ति के पहले आती है। क्योंकि व्यक्ति कहते ही हमें यह परिजान हो जाता है, कि यह अवश्य किसी भी समूह एवं समुदाय से अवश्य ही सम्बद्ध होगा। व्यक्ति आते हैं और चले जाते हैं, समाज सदैव रहता है। उसका जोवन व्यक्ति से बहुत अधिक दोर्घकालोन रहता है। समाज हो व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं सुसभ्य बनाता है। एक बालक का व्यक्तित्व बहुत कुछ उसके सामाजिक वातावरण पर निर्भर रहता है। वह प्रत्येक बात, फिर भले हो वह अच्छी हो अथवा बुरी, अपने समाज से हो सोखता है। केवल सोखने की शक्ति उसकी अपनी होती है। समाज में हो उसके अहम का विकास होता है, जिससे वह मनुष्य कहलाता है। समाज का अपना एक निजो संगठन है, वह व्यक्ति पर बहुत तरह से नियन्त्रण रखता है। उसका अपना निजो अस्तित्व और आकार है। परन्तु दूसरी ओर यह भी सत्य है, कि व्यक्तियों की अनुपस्थिति में समाज का कोई अस्तित्व नहीं रहता। क्योंकि व्यक्तियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy