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________________ व्यक्ति से समाज और समाज से व्यक्ति ! १५७ से ही समाज बनता है । व्यक्ति समाज को प्रभावित करते हैं । इस प्रकार समाज और व्यक्ति दो स्वतन्त्र प्रतीत होते हुए भी दोनों का अस्तित्व और विकास एक दूसरे पर निर्भर रहता है । न व्यक्ति समाज को छोड़ सकता है, और न समाज व्यक्ति को छोड़ सकता है । समाज को समझना उतना अधिक दुस्साध्य कार्य नहीं है, जितना किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझना । व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझने के लिए यह आवश्यक है, कि हम उसकी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को समझने का प्रयत्न करें। मनोविज्ञान के परिशीलन एवं अनुचिन्तन से परिज्ञात होता है, कि व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं- अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी । अन्तमुख व्यक्ति वह होता है, जो अपने आप में ही केन्द्रित रहता है, और बहिर्मुखी व्यक्ति वह होता है, जो परिवार और समाज में घुल मिलकर रहता है । व्यक्ति में यह परिवर्तन कैसे आता है ? इसका आधार है, उस व्यक्ति का व्यक्तित्व । व्यक्तित्व ही व्यक्ति के व्यवहार का समग्र आधार है । यदि किसी व्यक्ति में अकेलापन है, तो अवश्य ही उसके व्यक्तित्व में अकेलेपन के संस्कार रहे होंगे। बहिर्मुखी व्यक्ति अपने में केन्द्रित न रहकर, वह सभी के साथ घुल-मिल जाता है। किन्तु अन्त मुखी व्यक्ति समाज के वातावरण में रहकर भी, समाज से अलग-थलग सा रहता है । व्यक्तित्व का वह पक्ष, जो सामाजिक मान्यताओं से सम्बन्ध रखता है, जिसका सामाजिक जीवन में महत्व है, उसे हम चरित्र की संज्ञा देते हैं। सामाजिक जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए चरित्र का उच्च होना आवश्यक है । यदि व्यक्ति अपने चरित्र को सुन्दर नहीं बना पाता है, तो उसका समाज में टिक कर रहना भी सम्भव नहीं है । व्यक्ति जब दूसरे के साथ किसी भी प्रकार का अच्छा अथवा बुरा व्यवहार करता है, तभी हमें उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में परिज्ञान हो जाता है । सामाजिक वातावरण ही व्यक्ति के व्यक्तित्व की कसौटी है । व्यक्तिवाद : मैं आपसे यह कह रहा था, कि व्यक्ति का अपने आप में महत्व अवश्य है, किन्तु वह समाज को तिरस्कृत करके जीवित नहीं रह सकता । यह ठीक है कि व्यक्तिवाद समाज को व्यक्तियों का समूह मानता है, किन्तु फिर भी व्यक्तिवाद में समाज दब जाता है, और व्यक्ति उभर आता है । व्यक्तिवाद के मुख्य सिद्धान्तों में व्यक्तियों की स्वतन्त्रता एक मुख्य प्रश्न है । व्यक्ति के लिए स्वतन्त्रता ही सबसे महान् वस्तु है । स्वतन्त्रता के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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