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व्यक्ति से समाज और समाज से व्यक्ति
यह एक प्रश्न है, कि व्यक्ति बड़ा है अथवा समाज बड़ा है ? व्यक्ति का आधार समाज है अथवा समाज का आधार व्यक्ति है ? कुछ चिंतक यह कहते हैं, कि व्यक्ति बड़ा है, क्योंकि समाज की रचना व्यक्तियों के समह से ही होती है। कुछ विचारक यह कहते हैं, कि समाज बड़ा है, क्योंकि समाज में समाहित होकर व्यक्ति का व्यक्तित्व अलग कहीं रहता है ? जब बिन्दु सिन्धु में मिल गया, तब वह बिन्दू न होकर सिन्धू ही बन जाता है । यही स्थिति व्यक्ति और समाज की है, व्यष्टि और समष्टि को है, तथा एक और अनेक को है। मेरे विचार में, अकेला व्यक्तिवाद और अकेला समाजवाद समस्या का समाधान नहीं हो सकता। किसी अपेक्षा से व्यक्ति बड़ा है, किसी अपेक्षा से समाज भी बड़ा है । व्यक्ति इस अर्थ में बड़ा है, क्योंकि वह समाज-रचना का मल आधार है और समाज इस अर्थ में बडा है, कि वह व्यक्ति का आश्रय है। यदि स्थिति पर गम्भीरता से विचार किया जाए, तो हमें प्रतीत होगा. कि अपने-अपने स्थान पर और अपनी-अपनी स्थिति में दोनों का महत्व है। न कोई छोटा है, और न कोई बड़ा है। यदि विश्व में व्यक्ति का व्यक्तित्व न होता, तो फिर परिवार, समाज और राष्ट्र का अस्तित्व भो कैसे होता । समाजवाद :
किसी राष्ट्र का मल्य उसके व्यक्तियों का मल्य है, जिनसे वह बना है। यही बात समाज के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है, किसो भो समाज का मूल्य उसके व्यक्तियों का मूल्य है, जिससे वह बना है। यही बात परिवार के सम्बन्ध में भी कही जा सकता है। व्यक्ति भले ही अपने आप में हो, किन्तु परिवार की दृष्टि से वह एक होकर भी वस्तुतः अनेक होता है।
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