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________________ १३२ ! अपरिग्रह-दर्शन परिग्रह वस्तु में नहीं, इच्छा में है । परिग्रह का मूल इच्छा है । मात्र वस्तु को परिग्रह नहीं कहा जा सकता । यह मल प्रश्न इच्छाओं के संयम का है । इच्छा जागृत होने पर उसका विश्लेषण करना चाहिए। जो इच्छा हमें किसी वस्तु की ओर प्रेरित कर रही है, वह इच्छा एवं वस्तु क्या है । आवश्यक है या अनावश्यक है ? उस इच्छित वस्तु के अभाव में भी हमारा जीवन चल सकता है या नहीं। मान लीजिए, आपको भूख लगी है, बड़ी जोर की भूख लगी है । अतः खाने की इच्छा हुई, और किसी ने आप के सामने दाल-रोटी रख दी। आपने खाया और भूख शान्त हो गई। अब आप बाजार में निकल पड़े। किसी हलवाई की दुकान के सामने पहुँच गए। वहीं तरहतरह की मिठाइयाँ एवं नमकीन सजे हुए हैं। देखते ही आपके मुँह में पानी छट आता है । जेब गर्म नहीं है, अतः आप कुछ ले नहीं सकते, या स्वास्थ्य ठीक नहीं है, अतः कुछ खा नहीं सकते। पर आपकी इच्छा उधर ही दौड़ रही है, आपको वह मिठाई बिना खाए, चैन नहीं पड़ रही है । यहां पर इच्छा का विश्लेषण करना पड़ेगा। रोटी बिना खाए जीवन नहीं चल सकता, यह सत्य है । पर क्या मिठाई बिना खाए भी जीवन नहीं चल सकता । लाखों-करोड़ों मनुष्य ऐसे हैं, जिन्हें जिन्दगी भर मिठाई खाने को नहीं मिलती । तो क्या, उनकी जिन्दगी नहीं कटती । अः स्पष्ट है, कि रोटी की इच्छा एक आवश्यकता है, और मिठाई की इच्छा एक अनावश्यक इच्छा है । रोटी के बिना जीवन नहीं चल सकता, पर मिठाई के बिना चल सकता है, और चलता भी है । अस्तु, मिठाई के अभाव में हमारे मन में जो पीड़ा उत्पन्न होती है, वह निरर्थक है । इच्छानियन्त्रण के द्वारा उस पीडा से बचा जा सकता है । इच्छाओं के निरोध को तप कहा गया है । विश्व के बड़े-बड़े सम्राटों का इतिहास हम पढ़ते हैं, कि उन्हें अपने विशाल साम्राज्य में सुख प्राप्त नहीं हुआ, वे आगे ही आगे दौड़ते रहे, राज्य - लिप्सा के चक्कर में । रावण के पास इतना बड़ा 'रनवास' था. एक से एक रूपवती रानियाँ थीं। इस पर भी उसका मन संतुष्ट नहीं हुआ, और दौड़ा सीता की ओर। सीता तो नहीं मिली, उलटे उसका सर्व-नाश अवश्य हो गया । भगवान् महावीर के समय में एक सम्राट् हुआ हैकूणिक । राजा श्रेणिक का पुत्र था, वह । वैशालो गणतन्त्र के अध्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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