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इच्छाओं के द्वन्द्व का समाधान | १३१
हैं। यहां आवागमन का भी कोई अच्छा साधन नहीं। आसपास आदिवासियों की बस्ती है । न जाने; किस समय क्या गड़बड़ हो जाए, कोई ठीक नहीं। पर, पैसा मिलता है, इसलिए यहां बैठे हैं प्राण मुट्ठी में लिए !"
जीवन की यह स्थिति कितनी विचित्र है। मनुष्य पैसे के लिए कितना बड़ा बलिदान करने को तैयार हो जाता है। किन्तु यह बलिदान, यह त्याग, त्याग के लिए नहीं, भोग के लिए है। कामनाओं की पूर्ति के लिए है । जीवन में त्याग के लिए त्याग को भूमिका नहीं है। मन में वासनाओं की, भोग की, सूख ऐश्वर्य की असीम कामनाएँ उठ रही हैं, इच्छाएं जागृत हो रही हैं. पर स्थिति ऐसी है. कि वे सफल नहीं हो पा रही हैं । शक्ति और साधन के अभाव में वे दब जाती हैं। अब आप समझे होंगे, कि त्याग की भूमिका कितनी ऊंची है, उसमें इच्छाओं पर नियन्त्रण करने को कितनी गहन बात है। इसमें वासनाओं का दास नहीं, स्वामी बनने का सन्देश है । जब तक इच्छाओं पर नियन्त्रण नहीं होता है, तब तक एक चक्रवर्ती का भी वही हाल है, जो एक गन्दी नाली के कीड़े का है। इसलिए भगवान महावीर ने कहा है, कि जब आप में शक्ति है, आप किसी प्रिय वस्तु का स्वतः स्फर्त त्याग करने में समर्थ हैं, तभी आप जो त्याग करते हैं, वह सच्चा त्याग है ---''साहोणे चयइ भोए से ह चाइत्ति वुच्चई।" जिस आत्मा में संसार के धन, ऐश्वर्यों को, भोगों को प्राप्त करने की शक्ति है, अथवा उन्हें प्राप्त करने की इच्छाशक्ति रखता है, संकल्प उसके मन में उठते हैं, वह साधक उन इच्छाओं पर, विकल्पों पर नियन्त्रण करता है, तो वह वास्तव में त्यागी है। अन्यथा, तो जैसी कि कहावत है-'नारि मई घर संगत मासी, मूड मुंडाय भए संन्यासी' जैसे लाचारी के त्यागी संन्यासी तो बहुत हैं। उनसे कोई त्याग का महत्व नहीं होता, बल्कि कहना चाहिए, त्याग की विडम्बना ही होती है, उपहास ही होता है। इच्छा के निरोध में त्याग है।
वास्तव में जो त्याग है, वह वस्तु का ही नहीं, उसकी इच्छा का भी त्याग होना चाहिए । क्योंकि अन्ततः इच्छा ही परिग्रह है। वही बाह्य परिग्रह को जन्म देती है, परिग्रह को बढ़ाती है । इच्छा जागृत हुई, और वह वस्तु मिल गई, तब तो परिग्रह है ही, पर इच्छा जागृत होने पर यदि वस्तु नहीं भी मिली, तब भी वह परिग्रह है। इसका अभिप्राय यह है, कि
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