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________________ १२८ | अपरिग्रह-दर्शन इच्छा-परिमाण का तात्पर्य है- हमारी इच्छाओं का पृथक्करण और उचित सीमा निर्धारण । मन में जो इच्छाएं उभरती हैं, उनमें आवश्यक कितनी हैं और अनावश्यक कितनी हैं; साधक के लिए यह जानना बहुत जरी है। कितनी ही आशाएं ऐसी होती है, जो दुराशा मात्र होती हैं, जीवन से उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता, जीवन में उनकी कोई उपयोगिता और सार्थकता नहीं होती। वे आशाएँ रामायण के स्वर्ण-मृग की तरह वहुत लभावनी होती हैं, जो मनुष्य के मन को अपने मायावी मोहक रूप में उलझाकर भटकाती हैं, किन्तु कभी उसके हाथ नहीं लगती। इसलिए हमें पहले अपनी इच्छाओं का विश्लेषण करना होगा। उनके आवश्यक क्या है, और अनावश्यक क्या है। इस पथक्करण के बाद अनावश्यक का त्याग ही जैन परिभाषा में -.-'इच्छा-परिमाण' व्रत है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि मानव-मन में जो असीम इच्छाएँ हैं, उनको सीमित करना, इच्छाओं पर नियन्त्रण करना। इच्छाएं बेलगाम घोड़े की तरह दौड़ती रहती हैं, बिना अंकूश के हाथी की तरह टकराती रहती हैं । उन पर जब आवश्यक लगाम लग गई, अंकुश लग गया, तो वे सीमित हो गयीं, चकि इच्छा ही परिग्रह को जन्म देती है, एक प्रकार से तो इच्छा स्वयं ही परिग्रह है, इच्छा के सीमित होने से परिग्रह स्वयं ही सीमित हो जाता है। इसी को इच्छा-परिमाण कहा गया है। इच्छाओं का सर्वथा निरोध तो गृहस्थ जीवन में सम्भव ही नहीं है। परिग्रह क्या : एक बात यहां समझने की है कि जैन-दर्शन ने परिग्रह किसको माना है ? जैन-दर्शन ने किसी वस्तु या पदार्थ को परिग्रह नहीं माना है । वह तो एक बाहर की चीज है। वह क्या परिग्रह और क्या अपरिग्रह ? वास्तविक परिग्रह है 'इच्छा'। भगवान महावीर ने 'मच्छा परिगहो' कहा है । इसी भाव को आचार्य उमास्वाति ने संस्कृत के एक सूत्र में ' मूर्छा-परिग्रहः' कहा है । मूर्छा यानी इच्छा, ममता तथा मेरापन जो है, वही परिग्रह है। वस्तु को मन के साथ जोड़ने की जो वृत्ति है, और उसमें अपनापन देखने की जो दृष्टि है, वही परिग्रह है। मतलब यह हुआ, कि वस्तु परिग्रह नहीं, इच्छा परिग्रह है। इच्छा को ही जैन-दर्शन ने अविरति कहा है। विरति का अर्थ है विरक्ति, उदासीनता, इच्छा का संयम । और जहाँ इच्छा का संयम नहीं है, वहां अविरति है। अविरति का सूक्ष्म स्वरूप समझाते हुए आचार्यों ने कहा है-एक ओर गन्दगी का कीड़ा है, जो इधर-उधर गंन्दी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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