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________________ इच्छाओं के द्वन्द्व का समाधान | १२७ संकल्प-विकल्प हैं, वे सब भावमन की भूमि पर ही अंकुरित होते हैं, पुष्पित और पल्लवित होते हैं। इसीलिए मन का स्वरूप बताते हुए कहा गया है-'संकल्प-विकल्पात्मकं मनः ।' मन में प्रतिक्षण संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, इच्छाएँ जागती रहती हैं । ऐसा नहीं, कि पदार्थ को देखने पर ही मन की इच्छाएं जागती हैं। मन का बाहरी संसार जितना रंग-बिरंगा, संकल्पों और लालसाओं के फूलों तथा काँटों से भरा हुआ है । मन चुपचाप तथा शान्त कभी रहता ही नहीं। इच्छाएँ जागती हैं, और शान्त हो जाती हैं, वासनाएँ उठती है, और मिट जाती हैं। फिर कोई न कोई नयी इच्छा और नयी वासना नया रूप लेकर अवतरित होती है। इस प्रकार आशाओं और इच्छाओं के झूले पर मन सदा से झलता रहा है । संकल्पविकल्पों के चक्र में घूमता रहा है । यही मन का स्वरूप है। इच्छा-परिमाण : प्रश्न होता है, कि मन में जो संकल्पों और इच्छाओं का चक्र अनादिकाल से चलता आया है, वह क्या अनन्तकाल तक ऐसे हो चलता रहेगा? विकल्पों की धारा को निर्विकल्पता की चट्टान से क्या रोका नहीं जा सकता? क्या लहर की तरह चंचल और विचित्र इन इच्छाओं का निरोध नहीं हो सकता? मन में कोई संकल्प उठे ही नहीं, इच्छा जागृत ही नहीं हो, ऐसी स्थिति आ सकती है या नहीं? शास्त्र में पूर्ण इच्छानिरोध की एक भूमिका बतलाई गई है, निर्विकल्प स्थिति की भी एक दशा है, पर वह इतनी ऊंची है, कि एकदम उस भूमिका पर पहुँच जाना बहुत कठिन है। मन का निग्रह करना सहज नहीं है । गीता में कहा है "चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि वलवढम् । तस्याह निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम ॥" मन को रोकना, वायु को रोकने जैसा दुष्कर कार्य है। हिमालय की चढ़ाई है। हिमालय की चढ़ाई प्रारम्भ करने से पहले छोटी-छोटी पहाड़ियों पर चढ़ने का अभ्यास करना जैसे जरूरी होता है, उसी प्रकार निर्विकल्प अवस्था में जाने के लिए पहले विकल्पों के पृथक्करण एवं विश्लेषण की भूमिका पर खड़ा होना पड़ेगा । इच्छाओं का सम्पूर्ण निरोध करने के लिए पहले इच्छाओं का परिमाण करना होगा, फिर धीरे-धीरे हम उस भूमिका की ओर बढ़ सकेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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