________________
१२६ । अपरिग्रह-दर्शन मन का दर्शन भी कर सकते हैं ? उसमें चलने वाली लहरों का नाटक भी हम देख सकते हैं ? वह मन कहाँ है ? उसका स्वरूप क्या है ? ये सब प्रश्न हमारे सामने 'यक्ष-प्रश्न' बनकर उपस्थित हो जाते हैं ? मन को समझा सकता हैं, उसकी वृत्तियों द्वारा ।
___ मन के सम्बन्ध में योग-मार्ग की मान्यता है, कि हृदय में एक अष्टदल कमल है, उसी में मन रहता है। लेकिन आज के शरीर विज्ञान ने अष्टदल कमल का अस्तित्व ही स्वीकार करने से इन्कार कर दिया है। कुछ आचार्यों ने मन को परमाण स्वरूप माना है, और शरीर के हृदय देश में उसका स्थान बताया है। जैन दर्शन के आचार्यों ने कहा है, कि मन अत्यन्त सक्ष्म है। बह शरीर के किसी एक भाग में नहीं, अपितु सर्वत्र व्याप्त है। जिस प्रकार मक्खन दूध के कण-कण में समाया रहता है, सुगन्ध फल की हर पंखड़ी में महकती रहती है, उसी प्रकार मन सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। कंटकाकीर्ण-पथ पर नंगे पैरों चलते समय जब पैर में कांटा चुभता है, तो हम तत्क्षण पीड़ा से कराह उठते हैं, मुह से मी-सी की आवाज निकलने लगती है, आँखों में पानी भर आता है, और मस्तिष्क में झनझनाहट छा जाती है। यदि मन शरीर में कहीं एक जगह केन्द्रित होता, तो वह पांव में कांटे की चुभन से इतना जल्दी, एक ही क्षण में तरंगित नहीं होता। शरीर के किसी भी अंग को जब कोई सुख-दुःख की अनुभूति होती है, कोई ठंडा या गर्म स्पर्श होता है, तो तुरन्त पूरे शरीर में बिजली की तरह स्पंदन, कंपन हो उठता है । अनुभूति की यह शक्ति सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है, इसलिए मानना चाहिए, कि मन भी हमारे सम्पूर्ण शरीर में परिव्याप्त है। यत्र पवनस्तत्र मनः । शरीर में जहाँ वायु वहां मन।
इस विचार-चिन्तन से यह स्पष्ट हो जाता है, कि मन समूचे शरीर में है। पर प्रश्न यहीं खत्म नहीं होता कि मन का रूप क्या है ? क्या वह कोई जड़ पुदगल-पिण्ड है या चेतना-पिंड है ? जैन दर्शन में मन का अत्यन्त सक्ष्म विश्लेषण किया गया है। मन को जड़ पुद्गल रूप भी माना है, और चैतन्य रूप भी । द्रव्यमन और भावमन के रूप में मन के दो प्रकार हैं, जैन दर्शन में।
अनुभव करने की जो क्षमता है, संवेदन-शक्ति है, वह भावमन है, वह चैतन्य रूप है । भावमन के बिना द्रव्यमन का कोई उपयोग नहीं होता, जितनी भी अनुभूतियां हैं, विचार लहरें हैं, इच्छाएँ और लालसाएं हैं,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org