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इच्छाओं के द्वन्द्व का समाधान
इच्छाओं का असंयमित रहकर उन्मुक्त-स्वच्छन्द विहार करना ही सारे अनर्थों का मूल है । इच्छाएँ परिग्रह-वृत्ति को जन्म देती हैं, परिग्रह नाना प्रकार के कर्म - कषायों के जाल में उलझा कर विवश कर देता है। जीवन की नय-नीति को विलुप्त कर देता है। अतः उन पर संयम करके बिजय प्राप्त करना साधक का प्रथम कर्त्तव्य है, और इसके लिए मार्ग है'इच्छा-परिमाण व्रत' ।
मनीषियों ने मन को समुद्र कहा है । जिस प्रकार समुद्र में प्रतिक्षण हजारों-लाखों ही नहीं, असंख्य लहरें उठती हैं, और गिरती हैं, दिन-रात लहरों के गर्जन-तर्जन एवं उत्थान-पतन का क्रम अविरल चालू रहता है, यही स्थिति मन की है । मन के समुद्र में भी क्षण-क्षण में विचार-तरंगें उठती रहती हैं, प्रतिपल मन का समुद्र विचार-लहरों से लहराता रहता है, एक क्षण के लिए भी वह स्थिर तथा शाम्त नहीं रह सकता । संकल्पविकल्पों का ज्वार उसमें आता जाता रहता है, आशा-निराशा का चक्राकार भँवर घूमता रहता है । सागर जिस प्रकार अथाह है, अपार है, मन भी उसी प्रकार अथाह एवं अपार है । उसके विचार-तरंगों की कोई थाह नहीं, उसकी कामना और इच्छाओं को कोई पार नहीं । इसलिए आचार्यों ने इसे महासागर कहा है- "सनो वै सरस्वान्" ।
मन कहाँ है :
जब मन को सागर के समान बताया, तब एक प्रश्न और पैदा हो गया, कि सागर को हम जब चाहें देख सकते हैं, उसके वक्षःस्थल पर होने वाला लहरों का विचित्र उत्थान-पतन भी हम देख सकते हैं, तो क्या हम
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