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________________ १३४ । अपरिग्रह-दर्शन मैं आपसे कह रहा था, कि हमें निर्वाण की ओर बढ़ना है, मोक्ष प्राप्त करना है, तो राग-द्वेष की इन वृत्तियों को दबाने की नहीं, बुझाने की आवश्यकता है, आन्तरिक स्फुरणा और अन्तर्जागरण के आधार पर कषायों की आग को सदा के लिए शान्त करने की जरूरत है। क्रोध आदि को वृत्तियों को उपशमन तक ही नहीं रखना है, उन्हें क्षय करना है, मूल से उखाड़ कर बाहर फेंकना है। साधना की ज्योति प्रदीप्त एवं सशक्त होनी चाहिए, निबंल एवं क्षीण नहीं। ___ एक बात और है, जिस पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। वह यह कि आजकल हमारी साधना पर, बाह्य स्थितियों का, बाह्य वातावरण का जो प्रभाव, दबाव व संकोच छाया हुआ है, साधना में जो बाह्य-दृष्टि आ गई है, उसे समाप्त करना होगा । त्याग, वैराग्य और साधना के तर्क एवं मूल्य जो बाह्य केन्द्र पर टिके हैं, उन्हें अन्त चेतना के केन्द्र पर स्थापित करना होगा, तभी आज की साधना से सम्बन्धित समस्याएं शिकायतें और उलझनें समाप्त हो सकेंगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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