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________________ साधक-जीवन : समस्याएँ और समाधान | १२३ निर्वाण शब्द हम बोलते हैं और उसका मोक्ष के अर्थ में प्रयोग करते हैं । वैदिक परम्परा में इस शब्द का कोई खास प्रयोग नहीं हुआ है, किन्तु जैन और बौद्ध वाड. मय में स्थान-स्थान पर यह शब्द मिलता है। ____ 'निर्वाण' का सीधा अर्थ 'मोक्ष' नहीं है, वह तो भावार्थ या फलितार्थ है। निर्वाण का शब्दार्थ होता है-'बुझ जाना। जलते दीपक का गुल हो जाना।' अतएव संस्कृत साहित्य के एक आचार्य ने कहा है -“निर्वाण-वीपे किम तैलदानम् ?' बौद्ध दर्शन के उद्भट विद्वान् आचार्य अश्वघोष ने निर्वाण का इसी अर्थ में प्रयोग किया है । उन्होंने कहा है - "दीपो यथा निर्वत्तिमभ्युपेतो, नंबावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद् विदिशं न कांचिद्, स्नेह-क्षयात् केवलमेति शांतिम् ॥" दीपक जलता-जलता बुझ गया, लो शान्त हो गई, तो वह लौ कहाँ गई ? क्या नीचे चली गई, या ऊपर अन्तरिक्ष में विलीन हो गई ? क्या किसी पूर्वादि दिशा में चली गई ? या किसी विदिशा में विलीन हो गई ? कहीं भी नहीं गई। तेल समाप्त हो गया और बस वहीं बुझ गई, निर्वाण को प्राप्त हो गई। बौद्ध दर्शन आत्मा के सम्बन्ध में भी इसी दृष्टि को लेकर कहता है, कि रागद्वष की स्निग्धता के कारण अनादि काल से यह हमारी आत्मा का दीपक जलता आ रहा है, जलते-जलते राग-द्वेष एवं क्लेश का तेल समाप्त हो गया, तो वह आत्मा (चेतना) की लौ बुझ गई। लौ बुझते ही ज्ञानी आत्मा) कहीं भी इधर-उधर नहीं गया, वहीं निर्वाण को प्राप्त हो गया । निर्वाण शब्द का जैन परम्परा में अर्थ होता है-निष्कषाय-भाव । जनदर्शन बौद्धदर्शन की भांति आत्मा का विलय होना नहीं मानता। निर्वाण के सम्बन्ध में उसका बहुत स्पष्ट और स्वतन्त्र चिन्तन है। यहां पर मैं अभी आपको इतना ही बताना चाहता हूँ, कि जैन दर्शन ने भी निर्वाण का एक मुख्य अर्थ 'बुझ जाना' माना है। जब तक राग-द्वेष की लौ बुझ नहीं जाती, कषायों की जो अग्नि जल रही है, वह बिल्कुल शान्त नहीं हो जाती, तब तक निर्वाण नहीं हो सकता। राग-द्वेष की लौ बुझ गई तो आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप में आ जाती है, अपने मूल-रूप की प्राप्ति कर लेती है और यही निर्वाण है, यही मोक्ष है। निर्वाण आत्मा का बुझ जाना नहीं, बल्कि राग-द्वेष का बुझ जाना निर्वाण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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