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________________ इच्छाओं के द्वन्द्व का समाधान | १२६ नाली में कुलबुलाता हुआ अपना जीवन गुजारता है, और दूसरी ओर एक चक्रवर्ती है, जो छह खण्ड के साम्राज्य का स्वामी है---इन दोनों में परिग्रह किसका ज्यादा है, और किसका कम है। आप कहेंगे, कीड़े के पास है क्या ? कुछ ही क्षणों का उसका जीवन है, और इसमें भी नन्हा-सा क्षीण शरीर । आगे-पीछे उसके पास सम्पत्ति के नाम पर है ही क्या ? और चक्रवर्ती का विशाल वैभव, साम्राज्य, ऐश्वर्य । इन दोनों की तुलना कैसी ? यही तो जैन-दर्शन का समता-वाद है, कि दोनों को एक ही भूमिका पर खड़ा करके देखा गया है। अविरति दोनों में बराबर है, कीड़े में भी और चक्रवर्ती में भी । क्योंकि इच्छाओं पर नियन्त्रण करने की कला न चक्रवर्ती के पास है और न कोड़े के पास । अतः वस्तु नहीं, वस्तु की मूर्छा को ही आचार्य ने परिग्रह कहा है। त्याग का मार्ग : ___ कीड़ा इसलिए इच्छा नहीं कर पाता है, कि उसमें चिंतन शक्ति की कमी है । कल्पना करो, कीड़े को यदि संकल्प शक्ति मिली होती, वह आदमी की तरह सोच सकता, विचार सकता होता, और तब उसकी आत्मा से आप पूछते, कि सोचो, विचार करो, तुम्हें क्या चाहिए ? जो चाहिए, वह तुम्हें मिलेगा, तो उस समय उसकी इच्छाएँ एक चक्रवर्ती की इच्छाओं से कम नहीं होतीं। वर्तमान में उसके पास विचार करने की शक्ति कम है, अतः अनर्गल इच्छाएं अन्दर में सोई पड़ी हैं, शक्ति के अभाव में यदि कोई किसी वस्तु को प्राप्त नहीं कर सकता, या उसका उपयोग नहीं कर सकता, तो यह उसका त्याग नहीं कहला सकता, विरति नहीं हो सकती। पराधीनता और विवशता की स्थिति के कारण वस्तु का असेवन त्याग कैसे हो सकता। उस स्थिति में सम्भव नहीं है। कल्पना करो, एक आदमी बीमार है, पेट में अलसर है, संग्रहणी है या और कुछ भी है, वह मिष्टान्न भोजन नहीं पचा सकता, दूध भी नहीं हजम कर सकता, और मेवा आदि भी नहीं खा सकता । डाक्टर ने चेतावनी दे दी है, कि यदि ये सब चीजें खाओगे, तो अधिक बीमार हो जाओगे फिर तबीयत को संभालना कठिन हो जाएगा, इसलिए वह सादा और हल्का भोजन करता है। क्या आप उसे त्यागी कहेंगे। आप कहेंगे नहीं, यह भी कोई त्याग है। उसने जो छोड रखा है, वह पाचन-शक्ति के अभाव में छोड़ा है। पचता नहीं, हजम नहीं होता, इसलिए नहीं खाता। इसका यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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