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साधक - जीवन : समस्याएँ और समाधान | ११६
" विकार - हेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः ।"
विकार के हेतु जब सामने उपस्थित हों, मोह के जागृत होने के कारण मौजूद हों, विषयों के चैतन्य होने का वातावरण सामने हो, उन परिस्थितियों में भी यदि मन शांत रहता है, वृत्तियां व विषय भाव जागृत नहीं होते हैं, मन में मोह की, क्रोध व अहंकार की लहर पैदा नहीं होती है, तो समझना चाहिए कि वह शान्त है, विरक्त है, और उसका वंराग्य ऊपर से ओढ़ा हुआ नहीं, अन्तर से जगा हुआ है । उसकी विरक्ति, भय तथा प्रलोभन से नहीं जगी है, बल्कि विवेक से जगी है ।
भय से शान्त रहना - फिर चाहे वह गुरु का भय हो, समाज का भय हो, राज का भय हो, या डंडे का भय हो - सच्चा वैराग्य नहीं है । भय से तो पशु भी संयत रहकर चल सकता है । आप देखते हैं, पशु जंगल में चरने को जाते हैं, दोनों ओर हरे-भरे खेतों में धान की बालें लहरा रही हैं, खाने को जी ललचाता है, मुंह में पानी छूटता है, फिर भी वह इधरउधर मुंह नहीं मार कर सीधा चला जा रहा है । क्या यह उसका संयम है ? क्या वह योगी बन गया है ? नहीं, यह संयम नहीं, भय है । ग्वाले के डंडे का भय है, इस कारण वह शान्त होकर सोधा चल रहा है ।
मैं आपसे कह रहा था कि भय व दबाव के कारण हमारे भीतर जो शान्ति आती है, वह सच्चा वैराग्य नहीं है, नकली वैराग्य है और मैं उस नकली वैराग्य को वैराग्य नहीं, दैन्य एवं मजबूरी कहता है ।
मूल्य और तर्क बदलने होंगे :
वर्तमान में हमारे साधना क्षेत्र में जो विचार पद्धति और दृष्टि चल रही है, वह एक प्रकार की दब्बू वृत्ति है, भय व लज्जा से जकड़ा हुआ नकली वैराग्य है । इस वृत्ति में आज परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, और वृत्ति में परिवर्तन लाने के लिए यह आवश्यक है कि दृष्टि में परिवर्तन आए । दृष्टि बदलने से सृष्टि बदल जाती है ।
आपका बच्चा कोई गलत कार्य कर बीड़ी पी रहा है, तो आप उसे देखते ही कुछ समझदार हैं तो धीरे से कहेंगे - " अरे कहेंगे ?”
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रहा है । कल्पना करो कि धमकाएंगे और यदि आप ! ऐसा करता है, लोग क्या
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