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११८ | अपरिग्रह-दर्शन
बाहर की ठंड से मूच्छित सांप गर्मी पाकर पुनः चैतन्य हो गया, और उससे असावधान रहने वाला बालक, जो उससे तमाशा करना चाहता था, बेचारा मर गया ।
क्रोध, मान, माया, लोभ आदि की ये वृत्तियाँ भी सांप हैं, जो साधना की शीतलता एवं शान्ति के कारण कभी-कभी मूच्छित सी हो जाती हैं और हमें लगता है कि वृत्तियां मर गयीं हैं, क्रोध समाप्त हो गया है, लोभ निर्मूल हो गया है और इसलिए हम उनसे असावधान या बेफ्रिक हो जाते हैं । किन्तु वस्तुतः वे वृत्तियां नरती नहीं, मूच्छित हो जाती हैं, क्षीण नहीं उपशान्त हो जाती हैं, और कोई भी निमित्त पाकर पुनः जागृत हो जाती हैं, उद्दीप्त हो उठती हैं और साधक जीवन को समाप्त कर डालती हैं ।
वृत्तियाँ : मूच्छित या मृत :
पहाड़ी बालक ने एक भूल की थी और बड़ी भयंकर भूल की थी, कि मूच्छित सांप को उसने मरा हुआ समझ लिया था। अक्सर वैसी ही भूल हमारे साधक भी आज साधना क्षेत्र में किए जा रहे हैं। और उस भूल का ही परिणाम यह है कि आज साधकों के लिए ही दम्भ, मायाचार व पाखण्ड जैसे शब्द शिकायत के रूप में जनता को जबान पर आ रहे हैं।
पिछले दिनों समाचार-पत्रों में पढ़ा था, कि बड़े-बड़े अस्पतालों में जोवित व्यक्तियों को भी मुर्दों के साथ डाल दिया जाता है । उन्हें मूच्छित या बेहोश देखकर डाक्टर लोग मरा समझ लेते हैं, या लापरवाही कर जाते हैं और बिचारे जावित व्यक्तियों को भी मुर्दों के साथ फेंक दिया जाता है। उनमें से कुछ पुनः जागृत हो जाते हैं और फिर यह शोर होता है, कि जीवित व्यक्ति मुर्दों के साथ फेंक दिया गया ।
साधक के जीवन में भी यही लापरवाही चल रही है । वह वृत्तियों को मुर्दा समझ कर एक ओर डाल देता है, और उदासीन हो जाता है । पर जब वे मुर्दे जाग उठते हैं, तो हम चौंक उठते हैं । आवश्यकता इस बात की है कि साधक इन वृत्तियों की शव परीक्षा करें, कि वस्तुतः वे मरी हैं या मूच्छित हैं ?
सच्चा वैराग्य क्या है ?
संस्कृत के एक आचार्य ने कहा है
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