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________________ आनन्द प्राप्ति का मार्ग | १०६ कारण उन इच्छाओं की पूर्ति में बाधा उपस्थित होती है, उनके प्रति मन में वैर और द्व ेष की लपटें प्रज्वलित होने लगती हैं। कभी-कभी तो व्यक्ति को अपने आप पर भी घृणा उत्पन्न होने लगती है, फलतः ऐसी स्थिति में व्यक्ति स्वयं अपना ही सिर पीटने लगता है, आत्म हत्या भी कर लेता है । इस प्रकार इच्छाओं की अपूर्ति के कारण मानव का मन सदा अशान्त बना रहता है। किसी भी व्यक्ति की समस्त इच्छाएँ न कभी पूर्ण हुई हैं, और न होंगी । यदि कोई पूर्णता का दावा करता है, कि मेरी इच्छाएँ पूर्ण हो चुकी हैं, तो वह भ्रम में है, अपने को धोका दे रहा है. जन-संसार से अपने अहम् की प्रवंचना करता है । वास्तव में सचाई तो यह है, कि इच्छा की पूर्ति का आनन्द भी इच्छा के अभाव का ही आनन्द है । ऐसी स्थिति में इच्छाओं की पूर्ति के द्वारा आनन्द प्राप्त करना, ऐसी ही बात है, जैसे कोई अपने शरीर में चाकू मार कर पहले तो घाव पैदा करे और फिर मरहम पट्टी करने के बाद घाव के अच्छा होने पर आनन्द मनाए । यह तो निरी मूर्खता का परिचायक है । आखिर, आनन्द तो घाव से पूर्व को स्थिति में आने पर ही होता है, तो फिर धाव पैदा ही क्यों किया जाए ? इसी प्रकार इच्छा की उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति शान्ति और आनन्द की स्थिति है । और, इच्छाओं को उत्पन्न करना चाकू मार कर घाव पैदा करने के समान है । आज समूचा संसार इसी मूर्खता की धारा में बह रहा है। शरीर का जख्म तो एक-दो महीना में भर भी जाता है, परन्तु इच्छाओं के चाकू का घाव तो जन्म-जन्मान्तर तक नहीं भर पाता । और यूं ही जख्मी मन लेकर दौड़ चलती रहती है । दिन-रात मन चिन्ताओं से व्याकुल, संघर्षों से परेशान और हाय-हाय करता रहता है । इतनी चिन्ता और व्याकुलताओं के बाद इच्छाओं की पूर्ति के रूप में यदि घाव कभी भर भी गया, तो क्या लाभ हुआ ? इच्छाओं की उत्पत्ति से पूर्व जो इच्छाओं की अभावात्मक स्थिति थी, उसे अनेक संकटपूर्ण स्थितियों के बाद इच्छाओं की पूर्ति होने पर पुनः प्राप्त करना और इच्छा के पूर्ति जन्य अभाव में आनन्द मनाना चाकू मार कर पहले जख्म बनाना है, और पुनः चिकित्सा के द्वारा उसे अच्छा करके आनन्द मनाना है । यह तो द्रविड़ प्राणायाम करने जैसी ही बात को चरितार्थं करता है । उक्त विवेचन पर से यह निष्कर्ष निकलता है, कि जब इच्छाओं के अभाव में ही आनन्द है, तो इच्छाओं को पैदा ही क्यों होने दिया जाए ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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