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________________ ११० | अपरिग्रह-दर्शन अधूरी इच्छाएं : शास्त्रकारों का कहना है, कि यदि मन को तरंगों और इच्छाओं का ठीक से विश्लेषण करें, तो यह निष्कर्ष निकलेगा, कि लोगों को अनेक निरथंक और क्षद्र इच्छाएं तंग करती रहती हैं। यदि इच्छाओं की शान्ति इच्छाओं की पूर्ति के द्वारा करना चाहें, तो कुछेक इच्छाओं की ही पूर्ति हो सकती है, अधिकांश इच्छाओं की पूर्ति तो कभी हो ही नहीं पाती। कई बार तो ऐसा भी होता है, कि एक इच्छा की पूर्ति के प्रयत्न में अनेक नयी इच्छाएँ और उत्पन्न हो जाती हैं । और, मन को ज्यादा परेशान करने लग जाती हैं। यह जीवन एक ऐसा महल है, जिसके हजारों दरवाजे हैं और हजारों ही कमरे हैं, और वे सब बन्द पड़े हैं। यदि कोई व्यक्ति इस महल में जाने के लिए प्रयत्न करता है, और पहला द्वार खोलकर अन्दर जाता है तो दसरा द्वार बन्द मिलता है। अथक परिश्रम करने के बाद जब वह दूसरा द्वार खोल पाता है, आगे बढ़ता है, तो तीसरा द्वार बन्द मिलता है। इस प्रकार एक के बाद एक बन्द दरवाजों को खोलने में ही उसके जीवन के ५० -१०० वर्ष बीत जाते हैं। और, एक दिन जब मौत सिर पर आकर चक्कर काटतो है, तब तक भी द्वार बन्द ही नजर आते हैं। आखिर में महल के दरवाजे पूरे खोल भी नहीं पाता, कि इंसान दुनिया से कच कर जाता है। रामायण से सम्बन्धित एक लोक-कथा है, कि जब रावण मृत्यु शय्या पर पड़ा महाप्रयाण करने की तैयारी कर रहा था, उस समय उससे पूछा गया, कि उसकी कोई इच्छा रह गई है, तो बताए, उसे पूरा किया जाए । इस पर उसने बताया कि "मेरे जीवन के कुछ अरमान, कुछ सपने ऐसे अधूरे रह गए हैं, जो पंख-कटे पक्षी की तरह अब उड़ने में असमर्थ हैं । वे सिर्फ अन्दर में तड़पने के लिए हैं। अब वे किसी भी तरह पूरे नहीं हो सकते।" बहुत जोर देने पर, कहते हैं, रावण ने बताया, कि.... (१) मेरी इच्छा थी कि अग्नि जले, परन्तु उससे कालिख और धुआँ नहीं निकले। उसमें मलिनता नहीं, केवल प्रकाश और उज्ज्वलता हो। (२) सोना, जो देखने में बहुत सुन्दर लगता है, उसमें सुगन्ध हो। (३) लंका के चारों ओर जो खारे पानो का समुद्र लहरा रहा है, उसका जल मीठा बनाया जाए, ताकि सबके उपयोग में आ सके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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