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________________ १०८ | अपरिग्रह-दर्शन द्रष्टा बनना चाहिए, इसलिए मन के अन्दर में झांकने और अपने को परखने की आवश्यकता है। दो प्रतिक्रियाएं : इच्छाओं के फलस्वरूप मन में जो प्रक्रियाएँ होती हैं, वे दो प्रकार की हैं-कुछ लोग तो इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते हैं। पूर्ति के द्वारा इच्छाओं को शान्त करके आनन्द पाना, यह एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से मन को तृप्त करने की वृत्ति सर्वसाधारण मनुष्यों में होती है। दूसरी प्रक्रिया यह है, कि साधक कहे जाने वाले कुछ लोग इच्छाओं को त्याग, वैराग्य और सन्तोष के द्वारा पैदा हो नहीं होने देते। यदि कभी पैदा हो भी जाती हैं, तो वहीं उनका दमन कर देते हैं। उनके मन की भूमिका कुछ विशिष्ट प्रकार की होती है । वहाँ इच्छाओं की फसल अनियमित और अवांछित नहीं होती। इसलिए उनको इच्छाओं की पूर्ति में न अहम् का उन्माद होता है, और न पूर्ति के अभाव में संताप ही भोगना पड़ता है । पहलो भूमिका के लोग इच्छाओं की पूर्ति में आनन्द मानते हैं, तो दूसरी भूमिका के लोग ठीक इसके विपरीत इच्छाओं के निरोध में आनन्द अनुभव करते हैं। मन जब तक शान्त रहता है, तब तक न तो इच्छाओं की उत्पत्ति होती है, और न कोई क्लेश एवं उदग ही होता है । परन्तु जब अशान्त मन में उत्पन्न इच्छाओं की पूर्ति के लिए कदम आगे बढ़ते हैं, तो रुकावटें, कठिनाइयां और बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। जीवन में सर्वत्र पक्की सड़कों की तरह व्यवस्थित स्थिति नहीं मिलती है, जिस पर आप अपनी इच्छाओं की मोटर को सुगमता से जहां चाहे दौड़ाते चले जाएँ । जब कदम-कदम पर बाधाएं आएंगी, विघ्न उपस्थित होंग, तो आपके मन को चोट पहुंचेगी, कांटे की तरह अन्दर में चुभन होगा और घृणा, द्वष तथा वैर को अभिवृद्धि होगी। इच्छा उत्पन्न होने के पूर्व की स्थिति शान्तिमय रहती है, परन्तु जब इच्छाओं के मार्ग में रुकावट आती हैं, तो व्याकुलता होती है, फलस्वरूप क्रोध, अभिमान आदि अनेक विकल्प व्यक्ति को तग करने लगते हैं। मनुष्य की सभी इच्छाएँ कभी पूरी नहीं होती हैं, यह संसार का नियम है। जीवन में सदा ही अपूर्ण एवं अतप्त इच्छाओं की संख्या ही अधिक होती है। और वे अपूर्ण इच्छाएँ भन को क्लान्त और व्याकुल करती रहती हैं। एक ओर उनके पूर्ण नहीं होने का दु.ख, मानव के दिल और दिमाग को कचोटता रहता है, तो दूसरी ओर गित परिस्थितियों और शक्तियों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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