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________________ आनन्द-प्राप्ति का मार्ग | १०७ सबसे पहले इस विषय पर चिन्तन-मनन करना चाहिए, कि कौन-सी इच्छाएँ जीवन-यात्रा में आवश्यक हैं, जिनके बिना जीवन में सन्तुलन नहीं रह सकता है । और कौन-सी इच्छाएं अनावश्यक है, जिनसे जीवन में एक निरर्थक भार बढ़ता है, व्यर्थ की परेशानी होती है। योग्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जीवन में कुछ-न-कुछ संघर्ष करना ही होगा, और शेष अनावश्यक इच्छाओं की गन्दगी और भार को हटाकर सफाई करनी होगी। मन के अन्दर प्रतिदिन असंख्य इच्छाएँ जन्म लेती हैं, और मर कर समाप्त हो जाती हैं। मन एक प्रकार से मृत इच्छाओं का श्मशान बना रहता है । उनमें अधिकतर इच्छाएं ऐसी होती हैं, जिनका कोई अर्थ नहीं होता, जीवन में कोई उपयोग नहीं होता, वे सिर्फ राग-द्वेष के चक्र की धुरियां मात्र होती हैं, उनकी गन्दगी भर कर मन को गन्दा नहीं करना है। मन तो एक खेत के समान है, जहां धान के साथ अनेक प्रकार का घास फूस भी पैदा होता है। किसान जब खेत में बीज डालता है, तो उसकी भावना का वास्तविक केन्द्र तो अनाज रहता है। उसके साथ-साथ घासफस आदि चीजें भी अपने आप पदा हो जाता हैं, वे खेत के लिए सिर्फ अनावश्यक ही नहीं, अपितु हानि-कारक भी होती हैं। यदि उन्हें अच्छी तरह साफ नहीं किया जाए, तो खेत में उनका एक भीषण जंगल ही खड़ा हो जाएगा। और इसका अन्तिम परिणाम यह होगा, कि जो बीज वास्तव में किसान ने बाए हैं, और जिनके उगने पर ही किसान का, समाज और देश का भविष्य निर्भर करता है, उन्हें ही उचित पोषण नहीं मिल सकेगा। खेत की उपजाऊ शक्ति उन बीजों को ही मिलनी चाहिए, उनका ही विकास होना चाहिए, परन्तु खेत में पैदा हुए निरर्थक घास आदि की सफाई न की जाए, तो वे घास उन बीजों का ही शोषण करेंगे । अन्न को ठीक मात्रा में पैदा नहीं होने देंगे। यही स्थिति मन की खेती को भी है। उसमें भी संकल्पों के बीज डाले जाते हैं. किन्तु मनुष्य को जरा-सी असावधानी के कारण गलत इच्छाओं के घासों से मन का खेत भर जाता है । यदि उन्हें ठीक समय पर दूर नहीं किया जा सका, तो वास्तविक इच्छाओं को, चाहे वे आध्यात्मिक हों, पारिवारिक हो, सामाजिक तथा राष्ट्रीय हों, कुछ भी हों- जैसा उचित पोषण मिलना चाहिए, नहीं मिल पायेगा । पोषक तत्वों को वे निरर्थक इच्छाएं ही हजम कर जायेंगी। अतः आवश्यकता इस बात की है, कि प्रबुद्ध मानव को अपने अन्दर में इच्छाओं का विश्लेषण करने की शक्ति पंदा करनी चाहिए, उनके सही और गलत रूपों के पहचान का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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