SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ | अपरिग्रह-दर्शन और धर्मराज के भी समक्ष, द्रौपदी जैसी अत्यन्त प्रतिष्ठित, राज-तनया और राज-पत्नी महिला को नंगी करने की चेष्टा की गई। क्या आज शिष्ट पुरुषों के समाज में ऐसा किया जा सकता है ? फिर भी वह द्वापर था, और आज घोर कलियुग है। काल नहीं, मनोवृत्ति मुख्य है। ___सतयुग और कलियुग मनुष्य द्वारा कल्पित हैं, और केवल व्यवहार के लिए गढ़ लिए गए हैं। अगर हमारे जीवन में सचाई है, तो आज भो सत. युग है और बुराई है, तो कलियुग है। वास्तव में, हमारा जीवन ही सतयुग और कलियुग है। यह तो है नहीं, कि सतयुग में और चांद-सूरज हों, और कलियुग में और हों। वही चांद-सूरज हैं, वही हवाएं हैं। प्रकृति के नियम अटल हैं । वही समाज है, वही राष्ट्र है। बहुधा हम जीवन की अच्छाइयों को प्राप्त करते समय युगों पर अड़ जाते हैं। कहने लगते हैं-कलियुग है भाई. कलियुग है । अरे, यह तो पांचवा आरा है । इसमें तो कोई बिरला हो पाप से बच सकता है । इस प्रकार कहकर हम अपने जीवन की उज्ज्वलताओं के प्रति निराश और हताश हो जाते हैं। अपनी दुर्बलताओं का प्रसार होने देते हैं। बहत बार अपने दोषों को युग के आवरण में छिपाने का प्रयत्न करते हैं, अपनी मानी हुई अक्षमता के प्रति सहनशील बन जाते हैं। बहुत बार देखा जाता है, कि एक मनुष्य जब किसी बुराई में पड़ा होता है, तो वह कहने लगता है --- अमुक बुराई तो उसमें भी है, और उसमें भी है । यह कहकर वह समझता है, कि हम अपने विषय में सफाई पश कर रहे हैं, मगर ऐसा कहने से क्या उसकी बुराई, बुराई नहीं रहती ? जो बुराई दूसरों में और अनेकों में हो, वह क्या बुराई नहीं है ! । दूसरों को उसी बुराई का पात्र बतला देने मात्र से आप उस बुराई से बरी नहीं हो सकते । बल्कि ऐसा करके आप अपनी बुराई को बढ़ावा देंगे, और उससे छुटकारा नहीं पा सकेंगे। बुराई तो बुराई है । क्या अपनी और क्या पर की? अभिप्राय यह है, कि यूग का बहाना करके अथवा दूसरे व्यक्तियों का बहाना करके आज अपनी किसी भी बुराई को सहन न करें। जैसे आप अपने पड़ौसी की बुराई को देखकर सहन नहीं कर सकते, उसी प्रकार अपनो बुराई को भी सहन न करें। आपके जीवन को मोड़ सत्य की ओर होनी चाहिए। दूसरों की नुक्ताचीनी से हमारा सुधार होने वाला नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy