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आसक्ति : परिग्रह | १०३ जब आप अपने पड़ोसी को लखपति या करोड़पति के रूप में देखते हैं, और दिन-रात तष्णा-राक्षसी के पंजे में फंसा देखते हैं, तो आप उसका अनुकरण करने लगते हैं। आप अपने हृदय में भी तृष्णा को जगा लेते हैं, और सब कुछ भूलकर धनोपार्जन करने में जुट जाते हैं । सोचते हैं-यह इतना धनाढ्य होकर भी जब अपनी इच्छाओं और लालसाओं को आगे बढ़ने से नहीं रोकता, तो मैं कैसे रोकू ? परन्तु जीवन का यह आदर्श नहीं है । आपको तो तात्विक दृष्टि से विचार करना चाहिए। तात्विक दृष्टि से विचार किए बिना परमार्थ की उपलब्धि नहीं हो सकती। दूसरों का अनुकरण अच्छा नहीं।
अगर आपने समझ लिया है, कि इच्छाओं को कहीं समाप्ति नहीं है, लालसाओं का कहीं अन्त नहीं है, एक क्या अनन्त जीवन धारण करके भी तृष्णा की पूर्ति नहीं हो सकती है, और इनके वशीभूत होकर मनुष्य कहीं भी शान्ति नहीं पा सकता है, फिर दूसरों का अनुकरण क्यों करते हो ? दूसरे तृष्णा की ज्वालाओं में पतंगों की तरह कद रहे हैं, तो तुम क्यों उनके पीछे कूदते हो?
जब तुम समझते हो, कि यह मार्ग हमें अभीष्ट लक्ष्य पर नहीं पहुँचा सकता, और लक्ष्य से दूर और दूरतर ही ले जाकर छोड़ देने वाला है, तो क्यों आंख मींच कर दूसरों के पीछे लगते हो? तुम्हारी तत्वदृष्टि ने जो मार्ग तुम्हें सुझाया है, उसी पर चलो। अपना निर्णय अपने विवेक से करो।
तुम अन्धानकरण न करो, आंख खोलकर सही रास्ते पर चलो। चलोगे, तो तुम्हारा अनुकरण करने वाले भी मिल जाएंगे !
___ आज की दुनियां में परिग्रह के लिए जो अविश्रान्त दौड़-धूप हो रही है, उसके अन्यान्य कारणों के साथ अनुकरण भी एक मुख्य कारण है। आज धनी बनने की होड़ लग रही है। प्रत्येक एक-दूसरे से बड़ा धनी बनने की इच्छा रखता है। और इसी 'चाह' ने समप्र विश्व को संघर्षों की क्रीडास्थली बना रखा है। इस चाह ने जैसे व्यक्तिगत जीवन को अशान्त और असन्तुष्ट बना दिया है, उसी प्रकार राष्ट्रों को भी अशान्त और असन्तुष्ट बना रखा है। नतीजा जो है, वह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। न व्यक्ति सुखी है, न राष्ट्र ही।
आखिर, इस परिस्थिति का अन्त कहां है ? कि सीमा पर पहुँच
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