SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आसक्ति: परिग्रह | १०१ का नवनीतोपम मृदुल हृदय पिघल गया । उन्होंने करुणा प्रेरित होकर कहा— भद्र, तुम चाहो तो संघ तुम्हें शरण देगा । तुम भिक्षु बनकर परलोक सुधार सकते हो | सुधर्मा स्वामी की यह स्वीकृति वृद्ध के लिए दिव्य वरदान थी । वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ, और स्वामी जी के साथ हो गया । उन्होंने वृद्ध को शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया । क्या सुधर्मा स्वामी का बनाया हुआ वह शिष्य परिग्रह था ? नहीं, उनकी वृत्ति ऐसी नहीं थी, कि यह शिष्य बन जाएगा, तो मेरी सेवा करेगा, पगचंपी करेगा या आहार पानो लाकर देगा ! उनकी वृत्ति में वृद्ध के प्रति विशुद्ध करुणा का ही भाव था । उसे संघ में स्थान देकर उसके जीवन का कल्याण करना ही उनका मुख्य उद्देश्य था । यह थी, उनकी करुणा वृत्ति । भगवान् महावीर से पूछा गया - शिष्य परिग्रह है या नहीं ? भगवान् ने उत्तर दिया- शिष्य परिग्रह है भी, और नहीं भी है । अगर कोई गुरू दीक्षा देकर शिष्य से यह आशा करता है, या इस आशा से दीक्षा देता है, कि यह गोचरी-पानी ला देगा, पैर दबा देगा, सेवा करेगा, तो यह परिग्रह है । और, यदि यह मनोवृत्ति हो, कि यह साधु बनकर अपने जीवन का कल्याण करेगा, समय आने पर मुझे भी धर्मं सहायता देगा, और संघ की निष्काम सेवा करेगा, तो वह परिग्रह नहीं है । प्राचीन काल में भी उपर्युक्त दोनों प्रकार की मनोवृत्तियां पायी जाती थीं, फिर चाहे वह सतयुग रहा हो या कलियुग । अच्छी मनोवृत्ति तो संस्कारी आत्मा में मिलती है। युग से उसका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। त्रेतायुग में राम पैदा हुए थे, तो क्या रावण नहीं पैदा हुआ था ? अगर वह राम का युग था, तो रावण का भी युग था । कृष्ण का युग था तो कंस का भी युग था । धर्मराज का युग था, तो दुर्योधन का भी युग था । प्रत्येक युग में विविध और परस्पर विरोधी मनोवृत्तियां पाई जाती रही हैं | काल तो सबके लिए समान ही है । जिसे आप सतयुग कहते हैं, उस युग में होने वाले अन्यायों और अत्याचारों पर जब विचार करते हैं, तब कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होने लगता है, कि उन अन्यायों की आज, इस कलियुग में पुनरावृत्ति भी नहीं हो सकती । दुर्योधन की राज सभा में भारत के प्रमुख पुरुषों के समक्ष ; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy