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________________ १०० | अपरिग्रह-दर्शन बस, यही ममत्व का अभाव अपरिग्रह है। इसके विरुद्ध अगर हम वस्तु को परिग्रह मानने चलेंगे, तो शिष्य भी परिग्रह हो जाएगा। ऐसी दशा में कोई भी अपरिग्रही मुनि दीक्षा कैसे दे सकता है, और शिष्य कैसे बन सकता है ? परन्तु हम देखते हैं, कि प्राचीन काल में भी दीक्षाएं दी जाती थी, और आज भी दीक्षाएँ दी जा रही हैं और इसी रूप में हजारों वर्षों से गुरुशिष्य की परम्परा जारी है। आगे भी चालू रहेगी। हां, यह ठीक है. कि किसी को अपने शिष्य पर अगर मोह है, तो बह उसके लिए परिग्रह ही है। गणधर सुधर्मा स्वामी एक बार कहीं जा रहे थे । रास्ते में उन्हें एक लकड़हारा मिला। उसकी जिन्दगी किनारे पर जा लगी थी। सारे बाल सफेद हो चुके थे। वह सिर पर लकड़ियों का भार लादे होफताहांफता जा रहा था। गणधर सुधर्मा स्वामी को बढ़े की यह दशा देखकर बड़ी दया आई। दया-द्रवित हृदय से उन्होंने उससे पूछा - वृद्ध तुम्हारे परिवार में कौन है ? वृद्ध-मेरे परिवार में मैं ही हूँ, और कोई भी नहीं। सूधर्मा स्वामी- क्या रोजगार करते हो? वृद्ध - महाराज, मैं लकड़ियां काट कर बेचता हूँ। सुधर्मा स्वामी-रहने को मकान है ? वद्ध-हां, उसे मकान ही कहना चाहिए । टटा-फटा खंडहर-सा है। उस पर घास-फस छाकर ठीक कर लेता है। बरसात का मौसम आता है, तो खराब हो जाता है, और जब खराब हो जाता है, तो फिर छा लेता है। बस, जिन्दगी में यही काम किया है, और यही कर रहा है । जीवन यों ही बीत रहा है। सुधर्मा स्वामी... भैया, क्या इसी तरह सारा का सारा जीवन समाप्त कर दोगे? पर-लोक के लिए भी कुछ कमाओगे या नहीं ? कुछ सत्कर्म नहीं करोगे, तो पर-लोक में क्या गति होगी? । वृद्ध-महाराज, सारा जीवन तो रोटो की समस्या में ही गला जा रहा है। और फिर कुछ जानता भी नहीं, कि पर-लोक के लिए क्या करूं। मुझ जैसे गरीब को कौन पर-लोक के लिए शुभ राह बतलावे । कौन इस जरा-जीर्ण बुड्ढे को आश्रय दे ? बुडढे की दुर्दशा देखकर उसके आन्तरिक संताप से सुधर्मा स्वामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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