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________________ आसक्ति : परिग्रह | ८६ इस प्रश्न के उत्तर में जैनधर्म ने और उसके अन्य साथियों ने भी कहा है, कि केवल प्राप्त वस्तुओं का संग्रह ही परिग्रह नहीं है, किन्तु जो अप्राप्त हैं, यानो प्राप्त नहीं की गई हैं, पर उनके लिए तमन्नाएँ हैं, लालसाएँ हैं-वे भी परिग्रह हैं। इस प्रकार प्राप्त वस्तु भी परिग्रह है और जिनकी कामना की जा रही है, वह अप्राप्त वस्तुएं भी परिग्रह हैं । सिद्धान्त के रूप में यही आदर्श है। यहां प्रश्न उठता है, कि आखिर ऐसा क्यों है ? जो वस्तु प्राप्त की जा चुकी है, उसके परिग्रह होने में तो कोई असंगति नहीं है। किन्तु जो मिली नहीं है, या प्राप्त नहीं है, उसे परिग्रह कसे कहा जा सकता है ? अगर अप्राप्त वस्तु को भी परिग्रह मान लिया जाता है, तो फिर श्रावक के परिग्रह त्याग का अर्थ ही क्या है ? आनन्द ने परिग्रह का त्याग किया है, तो क्या किया है ? उसके पास जो कुछ था, सब का सब उसने रख लिया है। अपनी सम्पत्ति में से कुछ भी नहीं छोड़ा है। एक कौड़ी का भी त्याग नहीं किया है। भगवान् महावीर ने भी उससे नहीं कहा, कि अरे, तेरे पास बहुत है, तो उसमें से कुछ छोड़ दे, त्याग दे । जितना-जितना त्याग होता है, उतना-उतना हो लाभ है। यह तो मैं पहले ही कह चुका हूँ, कि जैनधर्म इच्छा-प्रधान धर्म है । वह साधक के दिल को प्रेरित करता है, उत्तेजित करता है, और उसमें जागृति उत्पन्न करता है। वह रोशनी पंदा करके अन्धकार को दूर कर देता है। उसके बाद साधक जितनो तैयारो कर चुका है, और उसका मन जितना आगे पहुँच चुका है, वह अपने आपको खोल देता है । वह जितना ही अपने आपको खोलता है, उतना ही ऊपर उठता है। भगवान् महावीर ऐसे प्रसंगों पर यहो कहा करते थे - जहा सुहं देवाणुपिया, मा पडिबंधं करेह। अर्थात् देवों के प्यारे ! जिसमें तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो; और वैसा करने में विलम्ब मत करो। ___ तुम्हारा मन गति करने को तैयार हो गया है, और रसायन बनाने का समय आ गया है, तो फिर देर काहे की। फिर देर की, तो सम्भव है, ऐसा कोई आदमी मिल जाए जो उस मन को बिखेर दे, और पोछे हटा दे। अतएव जिस सत्कर्म के लिए तुम्हारे हृदय में प्रेरणा जागो है, उसे झट-पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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