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________________ आसक्ति , परिग्रह जो साधना अन्तर से उद्भूत होती है, और जीवन का अंग बन जाती है, वह शक्ति प्रदान करती है, जीवन को प्रगति की ओर ले जाती है; किन्तु जो साधना ऊपर से लादी गई है, वह जीवन का बोझ बन जाती है। उससे जीवन पनपता नहीं, बढ़ता नहीं, बल्कि उसकी प्रगति रुक जाती है। __इस तथ्य को ध्यान में रखकर कोई भी साधक जब साधना के लिए उद्धत हो, तो उसे अपनी आन्तरिक तैयारी का विचार कर लेना चाहिए। इस आन्तरिक तैयारी के अनुसार ही साधना के पथ पर अग्रसर होना चाहिए। जो साधक पूर्ण साधना के भार को उठा सकता है, और उस भार को उठाकर गड़बड़ाता नहीं है, उस साधक के लिए अपूर्ण साधना का कोई अर्थ नहीं है । वह पूर्ण साधना के पथ पर चलता है, और ऐसा साधक साधु कहलाता है। जो साधक अपनी समस्याओं में उलझा हुआ है, परिस्थितियों के कारण पूरे वजन को नहीं उठा सकता है, वह अल्प साधना के पथ का अवलम्बन करता है, वह साधक श्रावक कहलाता है। यद्यपि साधक अल्प साधना के पथ पर चल रहा है, परन्तु उसका लक्ष्य तो वही है । अल्प साधना करता हुआ भी वह पूर्ण साधना की ओर बढ़ता है। श्रावक आनन्द ने अणु साधना का पथ ग्रहण किया, और उसके परिग्रह-परिमाण-व्रत का जिक्र चल रहा है। परिग्रह की चर्चा के सिलसिले में हमें विचार करना है, कि वास्तव में परिग्रह अपने आप में क्या है ? जो वस्तु प्राप्त है, वही परिग्रह होती है, या जो नहीं प्राप्त है, वह भी परिग्रह हो सकती है ? अर्थात् मनुष्य को जो चीज मिल गई है, जो उसके नियन्त्रण या अधिकार में है, क्या उसी को परिग्रह माना जाए ? या जो चीजें मिली नहीं हैं, और जो सुख के साधन संसार भर में फैले हुए हैं, उन्हें भी परिग्रह कहा जा सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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