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________________ ६० | अपरिग्रह-दर्शन कर लेना ही उचित है । लोक में भी 'शुभस्य शीघ्रम्' वाली उक्ति प्रचलित है। यही आदर्श है, सिद्धान्त का । इस रूप में हम देखते हैं, कि अपार सम्पत्ति होने पर भी भगवान् ने आनन्द से यह नहीं कहा, कि इसमें से जरा कम करो। खाने-पीने की चीजें हैं, तो क्या, गायें हैं तो क्या, और नकदनारायण हैं तो क्या, आनन्द के पास जो कुछ भी था, वह सब उसने रख लिया। भगवान ने उसमें से कम करने के लिए आनन्द पर तनिक भी दबाव नहीं डाला। क्योंकि इच्छा-योग ही सहज धर्म है। ___मैं समझता हूँ, धर्म के लिए कोई दबाव डालने की आवश्यकता नहीं है। कोन आदमी कितना दान करता है. या तपस्या करता है, या दूसरी साधनाएं करता है, यह उसकी इच्छा पर निर्भर होना चाहिए। वह जिस रूप में तैयारो करके आया है, उतनी ही सिद्धि जागेगी। तुम्हारे अन्दर शक्ति है तुम उसके मन को बदल सकते हो. उसका विकास कर सकते हो, और यह सब उपदेश के रूप में ही कर सकते हो, दबाव से नहीं। दबाव का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है । दबाव भी हिंसा है । जब से दबाव के साथ धर्म का सम्बन्ध जोड़ा गया है, लोगों के दिलों में धर्म के प्रति आस्था कम हो गई है। धर्म भी प्रकाश-हीन-सा हो गया है। तभी से इन्सान उसको वजन के रूप में ढोता है, और वजन के रूप में ढोता है, तो धर्म बोझिल हो गया है । धर्म सहज नहीं रहता। जो धर्म बिना मन के किया जाता है, लज्जा तथा दबाव के कारण किया जाता है; सारो जिन्दगी ढोने के बाद भी वह इन्सान के मन में कोई उल्लास या प्रकाश पैदा नहीं कर सकता। यही कारण है, कि आज के जितने भी धर्म, परम्पराएँ, और पंथ हैं, उन सब के क्रिया-काण्ड निस्तेज हो गए हैं, और वे मानव-जाति के अभ्युदय के उतने सशक्त साधन नहीं रहे हैं, जितनी उनसे आशा को जाती है। उनकी इस निस्तेजता में दबाव का भी हाथ है । अनिच्छा से धर्म नहीं होता। हाँ, तो भगवान महावीर ने आनन्द पर कोई दबाव नहीं डाला, कि वह अपनी प्राप्त सामग्री या सम्पत्ति में से किंचित् कम कर दे । आनन्द के पास जितनी वस्तुएं थीं, उसने सब रख लीं, और सिर्फ अप्राप्त वस्तुओं का त्याग किया। अब प्रश्न यह है, कि जो चीज प्राप्त हो नहीं थी, उसका त्याग किया, ता क्या त्याग किया? उस त्याग का अर्थ हो क्या है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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