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________________ विज्ञप्तिलेखसंग्रह - किंचित् प्रास्ताविक एवं अज्ञात स्वरूप साहित्यिक निधिका, विद्वानों को ठीक ठीक परिचय प्राप्त हो । इस विचार के अनुसार मैंने इस लेखके साथ, अपनी पूर्व प्रकाशित 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' का भी पुर्नमुद्रण कर देना उचित समझा । इस प्रकार प्रस्तुत संग्रह में, 'विज्ञप्ति महालेख' एवं 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' नामक दो बडी रचनाओं के साथ, 'आनन्द प्रबन्ध लेख' आदि अन्य उप-रचनाओं का संकलन किया गया है। मेरा मनोरथ तो इन सब रचनाओं से संबद्ध ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक बातों का विस्तृत विवेचन इनके साथ देने का था और जैसा मैंने 'विज्ञप्तीत्रिवेणी' के साथ विस्तृत उपोद्घातात्मक निबन्ध लिखा है वैसा ही निबन्ध, इसके साथ लिखने का रहा । पर सद्भाग्यसे या दुर्भाग्यसे मैंने ऐसे अनेकानेक ग्रन्थोंके संपादन का काम, एक साथ हाथ में ले रखा है, जिससे मनोरथानुकूल ऐतिहासिक तथ्यपूर्ण विस्तृत भूमिकाएं या प्रस्तावनाएं लिखने का समय प्राप्त नहीं होता है। इस संग्रह के छपवाने का प्रारंभ आज से कोई १७-१८ वर्ष पहले किया गया था और कोई १०-१२ वर्ष पूर्व ही यह सारा संग्रह, वर्तमान रूप में प्रकाशित होनेकी स्थिति में पहुंच गया था। पर मेरे हाथों में अन्यान्य संपादनों का भार, दिन प्रति दिन बढ़ता ही रहने से, मैं अभी तक विस्तृत प्रस्तावना लिखने का सुयोग देख नहीं रहा हूं। अत: फिल हाल इस संग्रह को मूल मूल रूप में ही प्रकट कर देना मैंने अधिक उपयुक्त समझा है । मनमें आशा तो बन्धी हुई है ही कि निकट भविष्यमें, मैं इसका दूसरा भाग भी तैयार कर सकू और उसमें प्रस्तुत संग्रहसे संबद्ध विस्तृत विवेचना आदि लिख सकू । इस विवेचना की बहुत सी सामग्री संगृहीत हुई पडी है। केवल दो-तीन महिनों का निराबाध और एकान्त समय मुझे मिल जाय, तो मैं उसे लिपि बद्ध कर सकू । मेरा मनोरथ तो यह भी रहता है कि जैसे संस्कृत विज्ञप्तिलेख इस संग्रहमें प्रकाशित किये जा रहे हैं वैसे देशी भाषाओं में लिखे गये विज्ञप्तिपत्रों का भी प्रकाशन होना चाहिये । ये भाषानिबद्ध विज्ञप्तिपत्र तो और भी अत्यधिक ऐतिहासिक एवं साहित्यिक सामग्री से परिपूर्ण है । गूजरात और राजस्थान की चित्रकला की दृष्टिसे तो इनका महत्त्व अत्यंत अधिक है । ये विज्ञप्तिपत्र ५-१० की संख्यामें नहीं, पर खोज करने पर, सेंकडों की संख्यामें उपलब्ध होंगे। इनमें का एकएक विज्ञप्तिपत्र, एक-एक महत्त्वके निबन्धकी समग्रीसे भरा पडा है। यदि कोई विश्वविद्यालयों के उच्चाध्ययन करने वाले विद्यार्थी गण, इन विज्ञप्तिपत्रोंके विषयको ले कर ही अपने डॉक्टरेट (पीएच. डी.) की डिग्री के लिये अध्ययन और अन्वेषण कार्य करना चाहें तो उनको बहुत महत्त्व की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक सामग्री इनमें से उपलब्ध हो सकती है। प्रस्तुत संग्रह में प्रकाशित सर्वप्रथम विज्ञप्तिलेख विक्रमसंवत् १४४१ में लिखा गया है। इस दृष्टिसे मुझे अभी तक प्राप्त ऐसे विज्ञप्तिलेखों में यह सबसे प्राचीन है। यह लेख खरतर गच्छ के आचार्य जिनोदय सूरि ने, गुजरातके पाटण नगर से, अपने पूज्य लोकहिताचार्यके प्रति, जो उस समय अयोध्या नगर में चातुर्मास निमित्त रहे हुए थे, भेजा था। यह पत्र बहुत ही सुन्दर एवं प्रौढ साहित्यिक भाषामें लिखा गया है। बाण, दंडी और धनपाल जैसे महाकवियों द्वारा प्रयुक्त गद्य शैली के अनुकरणरूप में यह एक आदर्श रचना है। आलंकारिक भाषा की शब्दच्छटा के साथ, इसमें ऐतिहासिक घटना के निदर्शक वर्णनोंका भी सुन्दर पुट सम्मिश्रित है। जिनोदय सूरि और लोकहिताचार्य की परिचायक ऐतिहासिक साधन - सामग्री यथेष्ट उपलब्ध हो सकती है। खरतर गच्छ की पट्टावलीयों से तथा अन्यान्य ग्रन्थादि गत उल्लेखों से इनके समय आदि का सविस्तर इतिहास प्राप्त किया जा सकता है। हमारे संग्रहमें तथा बीकानेर आदिके ग्रन्थभंडारों में इस विषयकी सामग्री संचित है । इस सबका निर्देश करना या परिचय देना अभी मेरे लिये यहां पर शक्य नहीं है। प्रस्तुत लेख में जिनोदय सरि ने बहुत करके वि. सं. १४३०-३१ में जिस प्रदेश में विचरण किया और जिन - तीर्थभूत स्थानों की यात्रा एवं प्रतिष्ठा आदि कार्य किये, उसका संक्षिप्त में वर्णन है । लोकहिताचार्य ने अयोध्या से एक Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003412
Book TitleVignapti Lekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1960
Total Pages238
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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