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________________ विज्ञप्ति लेखसंग्रह - किंचित् प्रास्ताविक जिन अनेक विज्ञप्तिपत्रस्वरूप लेखोंका, प्रस्तुत 'विज्ञप्ति-लेख-संग्रह' में संकलन किया गया है उनमें से सर्व प्रथम 'विज्ञप्ति-त्रिवेणी' नामक लेख की प्राचीन हस्तलिखित प्रति, मुझे सन् १९१५ में, पाटण के वाडी पार्श्वनाथ मन्दिर स्थित प्राचीन ग्रन्थभंडार में उपलब्ध हुई । रचना को पढने से मुझे उसका बहुत महत्त्व अनुभूत हुआ और फिर सन् १९१६ में बडौदा में निवास करते हुए मैंने, प्रकाशित करने की दृष्टि से, उसका संपादन किया एवं भावनगर की जैन आत्मानन्द सभा द्वारा उसका प्रकाशन हुआ। मैंने उस पुस्तक की भूमिका बहुत विस्तारके साथ लिखी और उसमें वि का क्या तात्पर्य है और वे क्यों और कब लिखे जाते थे एवं उनका कैसा स्वरूप और वर्ण्यविषय आदि होता था, इन बातों पर यथेष्ट प्रकाश डाला था । तत्कालीन विद्वानों ने उस पुस्तक की बहुत प्रशंसा की । हिन्दी भाषा जगत् के महारथी और महागुरु ख. पंडित महावीर प्रसादजी द्विवेदीने उसकी आलोचना करते हुए उसे, समग्र भारतीय वाङ्मय में, एक अपूर्व और अद्वितीय रचना कह कर उसका मूल्यांकन किया । मेरी वह सर्वादिम संपादित पुस्तक थी। उसके बाद मैं वैसे विज्ञप्ति लेखों की खोज में बराबर लगा रहा और मुझे वैसे छोटे बडे अनेक लेख मिलते गये । विद्वान् आचार्य और यतिगण द्वारा संस्कृत में लिखे गये विज्ञप्ति लेखों के अतिरिक्त, जैन श्रावक समुदाय के द्वारा स्थान विशेषों से देश भाषा में लिखे गये लेखों की प्राप्ति भी मुझे हुई और ये लेख तो इतिहास, साहित्य एवं चित्रकला की दृष्टिसे और भी अधिक महत्त्व के ज्ञात हुए। इनमें से एक सब से प्राचीन लेख जो मुझे मिला उसको मैंने अपने द्वारा संपादित और प्रकाशित जैन साहित्य संशोधक नामक त्रैमासिक पत्र (सन् १९२०) में प्रकाशित किया । उस लेख का प्रकाशन देख कर उस के जैसे अन्यान्य विज्ञप्ति पत्रों की खोज की तरफ, कुछ अन्य विद्वान्मित्रोंका भी लक्ष्य आकृष्ट हुआ और बडौदा राज्य के पुरातत्त्व विभाग के डायरेक्टर ख. पं. हीरानन्द शास्त्रीने गायकवाड राज्य की ओरसे वैसे कुछ विज्ञप्ति पत्रात्मक लेखों का एक सचित्र प्रकाशन प्रकट किया । इस प्रकारके संस्कृत एवं देशभाषा में लिखित विज्ञप्ति लेखों का संग्रह बहुत विशाल है और उनका सुन्दर रूप से प्रकाशन किया जाय तो जैन साहित्य, इतिहास और चित्रकला की दृष्टिसे एक महत्त्वका कार्य संपन्न होने जैसा है- यह विचार कर मैंने सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा ऐसे कुछ संग्रहों का प्रकाशन कार्य प्रारंभ किया जिसके परिणाम स्वरूप उसका यह प्रथम भाग आज विद्वानों के सम्मुख उपस्थित है। प्रारंभ में मेरा विचार इस संग्रह में वैसे विज्ञप्ति लेख संकलित करने का था जो इस पुस्तक के पृ. ७० बाद, द्वितीय विभाग के रूप में, 'आनन्द लेख प्रबन्ध' नामक आदि लेखों का मुद्रण हुआ है। मेरे पास ऐसे छोटे-बडे पचासों ही लेखोंका संचय हुआ पडा है । सन् १९४० में, बंबई में मुझे बीकानेरके एक श्री पूज्यजी के पास वह बडा विज्ञप्ति लेख देखने को मिला जो इस संग्रह में सर्व प्रथम मुद्रित हुआ है । यह विज्ञप्ति लेख, सर्व प्रथम मुझे प्राप्त 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' नामक लेख से भी कुछ प्राचीन और वैसा ही बहुत महत्त्वका लगा । मैंने इस की प्रतिलिपि करवा ली और प्रकाशित करने की कामना से संशोधनादि करना प्रारंभ किया। श्री पूज्यजी से प्राप्त यह लेख टीपणा के रूप में लंबे कागजों पर लिखा गया है । अक्षर तो इस के सुवाच्य थे पर भाषा की दृष्टि से अशुद्धियां बहुत दिखाई दी। सद्भाग्य से इस की दूसरी प्रति मुनिवर श्री पुण्यविजयजी महाराज के पास पाटण में देखने को मिल गई । इस प्रतिका प्रथम पत्र नहीं है। बाको संपूर्ण है। यह प्रति बहुत सुन्दर ढंगसे लिखी गई है और शुद्धिकी दृष्टि से भी उत्तम कोटि की है । इस प्रति के प्राप्त होते ही मैंने इस का मुद्रण प्रारंभ कर दिया । प्रथम मेरा विचार इस अकेले ही लेख को सुन्दर रूप से प्रकाशित कर देने का रहा और इस की प्रस्तावना भी 'विज्ञप्ति त्रिवेणी' के समान विस्तृत रूपमें लिखने का था । पर पीछे से, ऐसे लेखों का एक समुच्चय संग्रह, इस दृष्टिसे प्रकाशित करने का हुआ, कि जिस से इस प्रकार के विशिष्ट और अभी तक अप्रकाशित Jain Education Intemational Jain Education Interational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003412
Book TitleVignapti Lekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1960
Total Pages238
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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