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अगडदत्त
जुवईओ सरिच्छाओ सुवण्ण-विच्छुरिय-छुरियाए ॥ ३५६ ॥ ता अहो मे अहमत्तणं जमेय-कारणे मइलियं कुलं अङ्गीकओ अयसो । अह वा --
ताव कुरइ वरम्गु वित्ति कुल लज्जवि तावहिं ।
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ताव अकज्जह तणिय सङ्क गुरु-यण-भउ तावहिं । ताविन्दियह वसाइ जसह सिरिहायइ तावहिं । रमाणहि मणु-मोहणिहि पुरिसु वसि होइ न जावहिं ॥ ३२१ ॥ ता धिरत्थु संसारस्स नत्थि एत्थ किंपि सुहकारणं । भणियं च - खण-दिट्ठ-नट्ठ-विहवे खण-परियट्टन्त- विविह-सुह- दुक्खे । खण- संजोय - विओए संसारे रे सुहं कत्तो || ३२८॥ एवमाइ भावेन्तो सर्वगेमुवगओ, निवडिऊण य भयवओ चलणेसु भाणयं ' भयवं, मम सन्तियं चरिममेयं । अहं एएसि भाइ-बायगो उव्विगो य अहं संसार वासाओ । ता करेह वय-पयाणेणाणुग्गहं ! दिक्खिओ भयवया । जाओ दुरणुचर - सामण्ण-परिपालणुज्जओ ति ।
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