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________________ दुःख और क्लेश रहते हैं । जब आत्मा का कर्म के साथ संयोग न रहेगा, तब प्रानन्द अपने शुद्ध रूप में परिणत हो जाएगा, फलतः सर्व प्रकार के दुःख एवं क्लेशों का क्षय हो जाएगा । देह का नाश या शरीर का छूट जाता ही मोक्ष नहीं है । ग्राम, नगर और समाज छोड़कर शून्य निर्जन वन में चले जाना ही मोक्ष नहीं है। इस प्रकार का मोक्ष तो एक बार नहीं, अनन्त अनन्त बारे हो चुका है। वास्तविक मोक्ष तो यही है, कि अनन्त अनन्त काल से श्रात्मा के साथ सम्बद्ध कर्म, विकार, अविद्या और माया को दूर किया जाए । विकारों से मुक्ति ही सच्ची मुक्ति है । जीवन मुक्ति पहले है, और विदेह मुक्ति उसके बाद में है । भारतीय दर्शन का लक्ष्य प्रानन्द है । भले ही वह दर्शन भारत की किसी भी परम्परा से सम्बद्ध रहा हो, किन्तु प्रत्येक अध्यात्मवादी दर्शन इस तथ्य को स्वीकार करता है कि are के जीवन का लक्ष्य एकमात्र आनन्द है । यह प्रश्न अवश्य किया जा सकता है, कि उस अनन्त आनन्द की प्राप्ति वर्तमान जीवन में भी हो सकती है, या नहीं ? क्या मृत्यु के बाद ही उसन्त मानन्द की प्राप्ति होगी? मैंने इस तथ्य को अनेक बार दुहराया है कि मुक्ति एवं मोक्ष जीवन का अंग है। स्वयं चैतन्य का ही एक रूप है । एक ओर संसार है और दूसरी ओर मुक्ति है । जब यह जीवन संसार हो सकता है, तब यह जीवन मोक्ष क्यों नहीं हो सकता ? जीवन से अलग न संसार है और न मोक्ष है। संसार और मोक्ष दोनों ही जीवन के दो पहलू हैं, दो दृष्टिकोण हैं। दोनों को समझने की आवश्यकता है । यह बात कितनी विचित्र है, कि संसार को तो हम जीवन का अंग मान लें, किन्तु मुक्ति को जीवन का अंग न मानें। जैन दर्शन कहता है कि एक ओर करवट बदली, तो संसार है और दूसरी ओर करवट बदली, तो मोक्ष है । किन्तु दोनों ओर करवट बदलने वाला जीवन शाश्वत है। वह संसार में भी है और मोक्ष में भी है। इसलिए मोक्ष जीव का ही होता है, और वह जीवन में ही होता है, मृत्यु में नहीं । जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह भी आखिर क्या वस्तु है ? मृत्यु जीवन का ही एक परिणाम है, जीवन का ही एक पर्याय है । मोक्ष एवं मुक्ति यदि जीवन-दशा में नहीं मिलती है, तो मृत्यु के बाद वह कैसे मिलेगी ? अतः भारतीय-दर्शन का यह एक महान् आदर्श है, कि जीवन में ही मुक्ति एवं मोक्ष प्राप्त किया जाए। इसको दर्शनशास्त्र में अर्हन्तदशा एवं जीवन-मुक्त अवस्था कहा जाता है । जीवन मुक्ति का अर्थ है -- जीवन के रहते हुए ही, शरीर और श्वासों के चलते हुए ही, काम, क्रोध आदि विकारों से इस आत्मा का सर्वथा मुक्त हो जाना । काम-क्रोध आदि विकार भी रहें और मुक्ति भी मिल जाए, यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार राग एवं द्वेष आदि कषायों को सर्वथा क्षय कर देना ही मुक्ति है । आत्मवादी दर्शन के समक्ष दो ही ध्रुव-केन्द्र हैं-- प्रात्मा और उसकी मुक्ति । मोक्ष क्या वस्तु है ? इस प्रश्न के उत्तर में अध्यात्मवादी दर्शन घूम-फिर कर एक ही बात और एक ही स्वर में कहते हैं कि मोक्ष प्रात्मा की उस विशुद्ध स्थिति का नाम है-- जहाँ आत्मा सर्वथा अमल एवं धवल हो जाती है। मोक्ष में एवं मुक्ति में जीवन का विसर्जन न होकर उसके प्रति मन-बुद्धि में जो एक प्रकार का मिथ्या दृष्टिकोण है, उसी का विसर्जन होता है । मिथ्या दृष्टिकोण का विसर्जन हो जाना, साधक जीवन की एक बहुत बड़ी उत्क्रान्ति है । जैन दर्शन के अनुसार मिथ्यात्व के स्थान पर सम्यक् दर्शन का, मिथ्या ज्ञान के स्थान पर सम्यक ज्ञान का और मिथ्या चारित्र के स्थान पर सम्यक् चारित्र का पूर्णतया एवं सर्वतोभावेन विकास हो जाना ही मोक्ष एवं मुक्ति है । मोक्ष को जब आत्मा की विशुद्ध स्थिति स्वीकार कर लिया जाता है, तब मोक्ष के विपरीत श्रात्मा की अशुद्ध स्थिति को ही संसार कहा जाता है । संसार क्या है ? स्थूल रूप में संसार का अर्थ प्रकाश, सूर्य, चन्द्र, भूमि, वायु, जल और अग्नि आदि समझा जाता है । परन्तु क्या वस्तुतः अध्यात्मभाषा में भी यही संसार है ? क्या अध्यात्म-शास्त्र इन सब को छोड़ने की बात कहता है ? क्या यह सम्भव है कि भौतिक जीवन के रहते, इन भौतिक तत्त्वों को छोड़ा जा सके ? पूर्ण आध्यात्मिक जीवन में भी, मोक्ष में भी प्रात्मा रहेगी तो लोक में ही, लोकाकाश में बंध- पोक्सो तुझ प्रज्झत्थेव Jain Education International For Private & Personal Use Only ७१ www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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