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________________ मुक्ति और मुक्ति का मार्ग : भारत के अध्यात्म-दर्शन में स्पष्ट रूप से यह बतलाया गया है कि जीवन के इस चरम लक्ष्य को कोई भी साधक अपनी साधना के द्वारा प्राप्त कर सकता है । भले ही वह साधक गृहस्थ हो अथवा भिक्षु हो । पुरुष हो अथवा नारी हो । बाल हो अथवा वृद्ध हो । भारत का हो अथवा भारत के बाहर का हो। जाति, देश और काल की सीमाएँ शक्तिपुञ्ज आत्म-तत्त्व को अपने में ग्राबद्ध नहीं कर सकती । विश्व का प्रत्येक व्यक्ति - राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध बन सकता है । किन्तु जीवन की इस ऊँचाई को पार करने की उसमें जो क्षमता और योग्यता है, तदनुकूल प्रयत्न भी होना चाहिए। भारतीय संस्कृति में महापुरुषों के उच्च एवं पवित्र जीवन की पूजा एवं प्रतिष्ठा तो की गई, किन्तु उसे कभी प्राप्य नहीं बताया गया । जो अप्राप्य है, अलभ्य है, भारतीय संस्कृति उसे अपना आदर्श नहीं मानती । वह आदर्श उसी को मानती है--जो प्राप्य है, प्राप्त किया जा सकता है। यह बात अलग है कि उस आदर्श को प्राप्त करने के लिए कितना प्रयत्न करना पड़ता है, कितनी साधना करनी पड़ती है। भारतीय-दर्शन यथार्थ और आदर्श में समन्वय करके चलता है । भारत का प्रत्येक नागरिक यह चाहता है कि मेरा पुत्र राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध बने तथा मेरी पुत्री ब्राह्मी, सुन्दरी, सीता और सावित्री बने । जीवन का यह श्रादर्श ऐसा कुछ नहीं है, जिसे प्राप्त न किया जा सके। भारतीय जीवन की यह एक विशेषता है कि वह अपनी संतान का नाम भी महापुरुषों के नाम पर रखती है। भारत के घरों के कितने ही आँगन ऐसे हैं जिनमें राम, कृष्ण, शंकर, महावीर और गौतम खेलते हैं । सीता, सावित्री, पार्वती और त्रिशला भी कम नहीं हैं। इसके पीछे एक ध्येय है और वह यह कि जैसा तुम्हारा नाम है, वैसे ही तुम बन सकते हो। ये नाम केवल प्रदर्श ही नहीं हैं, यथार्थ भी हैं। अतः स्पष्ट है, एक साधक अपने जीवन में जिस आदर्शवादी दृष्टिकोण को लेकर चलता है, वह आदर्श केवल आदर्श ही नहीं है, जीवन के धरातल पर उतरने वाला एक यथार्थ सत्य है । आदर्श को यथार्थ में बदलने की अध्यात्म-कला का यहाँ चरम विकास हुआ है। भारतीय संस्कृति का यह एक स्वस्थ संतुलित सुन्दर एवं स्पष्ट सिद्धान्त रहा है कि जीवन को शान्त एवं प्रानन्दित बनाने के लिए विचार को आचार बदला जाए और आचार को विचार में बदला जाए। भारतीय दर्शन का आदर्श आत्मा के सम्बन्ध में सच्चिदानन्द रहा है । जहाँ सत् अर्थात् सत्ता, चित् अर्थात् ज्ञान और आनन्द अर्थात् सुख-तीनों की स्थिति चरम सीमा पर पहुँच जाती है, उसी अवस्था को यहाँ परमात्म-भाव कहा गया है। उसकी प्राप्ति के बाद अन्य कुछ प्राप्तव्य नहीं रह जाता । इसकी साधना कर लेने के बाद अन्य कुछ कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। आप ही विचार कीजिए, जब अनन्त आनन्द मिल गया, अक्षय सुख मिल गया, फिर तो अब क्या पाना शेष रह गया ? कुछ भी तो शेष नहीं बचा, जिसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया जाए एवं साधना की जाए ! भारतीय दर्शन में इसी को मोक्ष कहा गया है, इसी को मुक्ति कहा गया है और इसी को मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य माना गया है । यहाँ एक बात याद रखने की है कि जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का अनन्त आनन्द सत् है, असत् नहीं । वह केवल दुःखाभावरूप तुच्छ प्रभाव नहीं है, अपितु अनन्त काल से विकृत चले आ रहे आनन्द का शुद्ध रूप है । जब आत्मा स्वयं सत् है, तो उसका आनन्द असत् कैसे हो सकता है ? जब आत्मा स्वयं सत् है, तो उसका चित् (ज्ञान) असत् कैसे हो सकता है ? आत्मा में सत्, चित् और ग्रानन्द शाश्वत है, नित्य है, इनका कभी अभाव नहीं होता । यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि जब आत्मा सुख रूप एवं श्रानन्द रूप है, तब उसमें दुःख कहाँ से आता है ? और क्यों आता है ? दुःख का मूल कारण बन्धन है। जब तक आत्मा की बद्धदशा है, तभी तक प्रानन्द विकृत होकर दुःख की स्थिति में बदला रहता है । दुःख एवं क्लेश का मूल कारण कर्म, श्रविद्या, माया एवं वासना को माना गया । जब तक श्रम कर्म के बन्धन से बद्ध है, तभी तक श्रानन्द विकृत रहता है, तभी तक उसे ७० Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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