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________________ बूंद आप पर असर नहीं डाल पाती और यह कला राग-द्वेष के विकल्प को जीतने की है। है । जब आत्मा में वीतराग भाव आ जाता है, तब संसार के किसी भी पदार्थ का उसके जीवन पर अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। संसार का विपरीत भाव ही मोक्ष है । जैसे दूध दूध है और पानी पानी है, यह दोनों की शुद्ध अवस्था है। जब दोनों को मिला दिया जाता है, तब यह दोनों की अशुद्ध अवस्था कहलाती है । इस प्रकार जीव और पुद्गल की संयोगावस्था संसार है और इन दोनों की वियोगावस्था ही मोक्ष है। इस मोक्ष अवस्था में जीव, जीव रह जाता है और पुद्गल, पुद्गल । वस्तुतः यही दोनों की विशुद्ध स्थिति है । यहाँ पर एक बात और भी विचारणीय है, और वह यह कि प्रत्येक मत और प्रत्येक पंथ, अपने को सच्चा समझता है और दूसरे को झूठा समझता है। वास्तव में कौन सच्चा है और कौन झूठा है, इसकी परीक्षा करना भी आवश्यक हो जाता है। मैं समझता हूँ, जो धर्म और दर्शन सत्य की उपासना करता है, फिर भले ही वह सत्य अपना हो अथवा दूसरों का हो, बिना किसी मताग्रह एवं पूर्वाग्रह के तटस्थ भाव से सत्य को सत्य समझना ही वास्तविक सम्यक् दर्शन है । सत्य तत्त्वों पर निश्चित दृष्टि, प्रतीति श्रर्थात् श्रद्धान ही मोक्ष - साधना का प्रथम अंग है । अध्यात्म-साधना में सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक होता है कि आत्म-धर्म क्या है और आत्म-स्वभाव क्या है ? आत्मा और अनात्मा के भेद - विज्ञान को अध्यात्म भाषा में सम्यक् दर्शन कहा जाता है । आत्म-स्वरूप का स्पष्ट दर्शन और कल्याण- पथ की दृढ़ प्रास्था, यही सम्यक् दर्शन है । कभी-कभी हमारी आस्था में और हमारी श्रद्धा में भय से और लोभ से चंचलता और मलिनता श्रा जाती है । इस प्रकार के प्रसंग पर भेद-विज्ञान के सिद्धान्त से ही, उस चंचलता और मलिनता को दूर हटाया जा सकता है । सम्यक् - दर्शन की ज्योति जगते ही, तत्त्व का स्पष्टतः दर्शन होने लगता है । स्वानुभूति और स्वानुभव, यही सम्यक् दर्शन की सबसे संक्षिप्त परिभाषा हो सकती है । कुछ विचार मूढ़ लोग बाह्य जड़ - क्रियाकाण्ड में ही सम्यक दर्शन मानते हैं । किन्तु, सम्यक्दर्शन का सम्बन्ध किसी भी जड़-क्रियाकाण्ड से नहीं है, बल्कि उसका एकमात्र सम्बन्ध है, आत्म-भाव की विशुद्ध परिणति से । सम्यक् दर्शन का सम्बन्ध न किसी वेश- विशेष से है, न किसी जाति - विशेष से है और न किसी पंथ- विशेष से ही है । जब तक यह आत्मा स्वाधीन सुख को प्राप्त करने की ओर उन्मुख नहीं होती है, तब तक किसी भी प्रकार की धर्म-साधना से कुछ भी लाभ नहीं हो सकता । अपनी आत्मा में अविचल आस्था होना ही सम्यक दर्शन का वास्तविक अर्थ है, तब शरीरापेक्षित किसी भी जड़ farmerost में और सम्प्रदाय विशेष के विविध विधि - निषेधों में सम्यक् दर्शनन हीं हो सकता सम्यक दर्शन के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा चुका है, किन्तु सम्यक् - दर्शन एक ऐसा विषय है कि जीवन भर भी यदि इस पर विचार किया जाए, तब भी इस विषय का अन्त नहीं आ सकता । फिर भी, संसार के किसी भी पदार्थ को रागात्मक दृष्टि से देखना निश्चय ही अधर्म है, और उसे स्वरूप-बोध की दृष्टि से देखना, निश्चय ही धर्म है । किसको देखना ? इस प्रश्न के उत्तर में कहना है कि इस संसार में अनन्त पदार्थ हैं, तुम किस-किस को देखोगे ? यह जटिल समस्या है। अतः किसी ऐसे पदार्थ को देखो, जिसके देखने से अन्य किसी के देखने की इच्छा ही न रहे और वह पदार्थ अन्य कोई नहीं, एकमात्र आत्मा ही है । मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि किसको देखना ? इस प्रश्न का एक ही समाधान है, कि आत्मा को ही देखो । आत्मा को देखने पर ही हम अपने लक्ष्य को अधिगत कर सकेंगे। अभी तक यह आत्मा अपने को अनन्त काल से मिथ्या दृष्टि से ही देखती रही है, किन्तु जब तक सम्यक् दृष्टि से नहीं देखा जाएगा, तब तक श्रात्मा का कल्याण एवं उत्थान नहीं हो सकता । इस प्रकार जब हम वस्तुस्थिति का अध्ययन करते हैं, तब हमें जीवन की वास्तविकता का परिबोध हो जाता है । it-ratear तु प्रज्झत्येव Jain Education International For Private & Personal Use Only ६६ www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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