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________________ ही। लोकाकाश के बाहर कहाँ जाएगी? जब एक व्यक्ति वैराज्य की भाषा में संसार छोड़ने की बात कहता है, तब वह क्या छोड़ता है ? अशन, वसन और भवन इनमें से वह क्या छोड़ सकता है? कल्पना कीजिए, कदाचित् इनको भी वह छोड़ दे, फिर भी अपने तन और मन को वह कैसे छोड़ सकता है ? इस भूमि और आकाश का परित्याग वह कैसे कर सकेगा? तब फिर उसने क्या छोड़ा? हम वैराग्य की भाषा में यह कह देते हैं कि वैराग्यशील ज्ञानी साधक ने संसार को छोड़ दिया, किन्तु इस संसार-परित्याग का क्या अर्थ है ? संसार छोड़कर वह कहाँ चला गया ? और, उसने छोड़ा भी क्या है ? वही शरीर रहा, वस्त्र भी वही रहा, भले ही उसकी बनावट में कुछ परिवर्तन आ गया हो। एक गृहस्थ की वेषभूषा के स्थान पर एक साधु का वेष आ गया हो। शरीर-पोषण के लिए वही भोजन, वही जल और वही वायु रही, तब संसार छोड़ने का क्या अर्थ हुआ? इससे स्पष्ट होता है कि यह सब-कुछ संसार नहीं है। तब संसार क्या है ? अध्यात्म-भाषा में यह कहा जाता है, कि वैषयिक आकांक्षाओं, कामनाओं और इच्छाओं का हृदय में जो अनन्त-काल से आवास है, वस्तुतः वही बन्धन है, वही संसार है। उस आकांक्षा का, कामना का और वासना का परित्याग ही सच्चा वैराग्य है। कामनाओं की दासता से मुक्त होना ही संसार से मुक्त होना है। जब साधक को अपने चित्त में आनन्द की उपलन्धि होती है, जब उसके जीवन में निराकुलता की भावना आती है, जब साधक के जीवन में व्याकूलता-रहित शान्त स्थिति आती है और यह आकुलता एवं व्याकुलता-रहित अवस्था जितने काल के लिए चित्त में बनी रहती है, शुद्ध आनन्द का वह एक मधुर क्षण भी मानवजीवन की अंशतः क्षणिक मुक्ति ही है। भले ही आज वह स्थायी न हो और साधक का उस पर पूर्ण अधिकार न हो पाया हो, परन्तु जिस दिन वह उस क्षणिकता को स्थायित्व में बदल कर मुक्ति पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेगा, उसी दिन, उसी क्षण उसकी पूर्ण मुक्ति हो जाएगी। जो अध्यात्म-साधक शरीर में रह कर भी शरीर में नहीं रहता, जो जीवन में रह कर भी जीवन में नहीं रहता और जो जगत् में रहकर भी जगत् में नहीं रहता, वही वस्तुतः विमुक्त अात्मा है। देह के रहते हुए भी, देह की ममता में बद्ध न होना, सच्ची मुक्ति है। जो देह में रहकर भी देह-भाव में आसक्त न होकर देहातीत अवस्था में पहुँच जाता है, वही अहंत है, वही जिन है और वही वीतराग हैं। अध्यात्म-दर्शन साधक को जगत् से भागते फिरने की शिक्षा नहीं देता। वह तो कहता है कि तुम प्रारब्ध कर्मजन्य भोग में रहकर भी भोग के विकारों और विकल्पों के बन्धन से मुक्त होकर रहो, यही जीवन की सबसे बड़ी साधना है। जीवन की प्रारब्ध-प्रक्रिया से भयभीत होकर कहाँ तक भागते रहोगे? और, कब तक भागते रहोगे? आखिर एक दिन उससे मोर्चा लेना ही होगा। देह आदि की तथाकथित आवश्यकता की पूर्ति करते हुए भी विकारों से निर्लिप्त रहना ही होगा, अन्तर्द्वन्द्व में विजेता बनना ही होगा, यही जीवन की सच्ची अध्यात्म-कला है। __ भारत के अध्यात्म साधकों की जीवन-गाथा एक-से-एक सुन्दर है , एक-से-एक मधुर है। भारत के अध्यात्म-साधक शूली की नुकीली नोंक पर चढ़कर भी मुक्ति का राग अलापते रहे हैं। भारत के अध्यात्म-साधक शूलों की राह पर चलकर भी मुक्ति के मार्ग से विमुख नहीं हो सके है। चाहे वे भवन में रहे हों या वन में रहे हों; चाहे वे एकाकी रहे हों या अनेकों के मध्य में रहे हों; चाहे वे सुख में रहे हों या दुःख में रहे हों--जीवन की प्रत्येक स्थिति में वे अपनी मुक्ति के लक्ष्य को भूल नहीं सके हैं। शूली की तीक्षण नोंक पर और फूलों की कोमल सेज पर अथवा रंगीले राजमहलों में या वीरान जंमलों में रहनेवाले ये अध्यात्म-साधक अपने जीवन का एक ही लक्ष्य लेकर चले और वह लक्ष्य था-- मुक्ति एवं मोक्ष । और तो क्या भारत की ललनाएँ अपने शिशुनों को पालने में झुलाते हुए भी उन्हें अध्यात्म की लोरियाँ सुनाती रही हैं। मदालसा जैसीम हानारियाँ गाती "शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरंजनोऽसि, संसार माया परिवजितोऽसि ।" पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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