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________________ नारी : धर्म एवं संस्कृति की सजग प्रहरी महिलाएँ समाजरूपी गाड़ी के एक समर्थ पहिये के रूप में सर्वथा महत्त्वपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित हैं। महिलाओं पर समाज का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। उन पर जितना अपने जीवन का दायित्व है, उतना ही अपने परिवार, समाज और धर्म का भी उत्तरदायित्व है। आज तक के लाखों वर्षों अतीत के इतिहास पर यदि हम दृष्टिपात करते हैं, तो मालम होता है कि उनके पैर सामाजिक या धार्मिक क्षेत्र में कभी पीछे नहीं रहे हैं, बल्कि आगे ही रहे हैं। जब हम तीर्थंकरों के जीवन को पढ़ते हैं, तो पता चलता है कि उन महापुरुषों के संघ में सम्मिलित होने के लिए, उनकी वाणी का अनुसरण करने के लिए और उनके पावन सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतारने तथा जन-जन में प्रसारित करने के लिए, अधिक-से-अधिक संख्या में, शक्ति के रूप में, बहन ही आगे आती हैं। महावीरकालीन महिला-जीवन : दुसरे तीर्थंकरों की बातें शायद आपके ध्यान में न हों, किन्तु अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर का इतिहास तो आपको विदित होना ही चाहिए। महावीर प्रभु ने साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका के रूप में धर्म के चार तीर्थ स्थापित किए और उन्हें एक संघ का रूप दिया गया। शास्त्रों में चारों तीर्थों की संख्या का उल्लेख मिलता है और उस इतिहास को हम बराबर हजारों वर्षों से दुहराते पा रहे हैं। वह इतिहास हमें बतलाता है कि भगवान् महावीर के शासन में यदि चौदह हजार साधु थे, तो छत्तीस हजार साध्वियां भी थीं। साधुओं की अपेक्षा साध्वियों की संख्या में कितना अन्तर है ! ढाई गुणी से भी ज्यादा है यह संख्या। यह ठीक है कि पुरुषवर्ग में से भी काफी साधु पाए, और यह भी सही है कि वे अपने पूर्व जीवन में बड़े ऐश्वर्यशाली और धनपति थे, तथा भोग-विलासों में उनका जीवन गुजर रहा था। किन्तु, भगवान महावीर की वाणी जैसे ही उनके कानों में पड़ी, वे महलों को छोड कर नीचे उतर आए। और, बड़े-बड़े विद्वान भी. जो तत्कालीन समाज का नेतत्व कर रहे थे, भिक्षु के रूप में दीक्षित हुए तथा उन्होंने महान् होते हुए भी जनता के एक छोटे-से सेवक के रूप में अपने अन्तर्मन से भरपूर जन-सेवा की। यह सब होते हुए भी जरा संख्या पर तो ध्यान दीजिए, कहाँ चौदह हजार और कहाँ छत्तीस हजार ! र अंधकार महिला-जीवन का आदर्शोपम अतीत : कहना चाहिए कि भगवान् की वाणी का अमृत रस, सबसे ज्यादा उन बहनों ने ग्रहण किया, जो सामाजिक दष्टि से पिछडी हई थीं और जिन्हें हम अज्ञान और अंधकार में रहने को मजबूर करते चले आ रहे थे। वास्तव में वे शक्तियाँ रूढ़ियों के शिलाखण्डों से दबी हुई थीं, परन्तु ज्योंही उन्हें उभरने का अवसर मिला, भगवान् की पावन वाणी का प्रकाश मिला, त्यों ही वे एक बहुत बड़ी संख्या में साधना की काँटों भरी राह पर बढ़ आईं। जिनका जीवन महलों में गुजरा था, जिनके एक इशारे पर हजारों दास और दासियाँ नारी : धर्म एवं संस्कृति की सजग प्रहरी ३८७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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