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________________ ब्रह्मचर्य : साधना का सर्वोच्च शिखर ब्रह्मचर्य का अर्थ है--मन, वचन एवं काय से समस्त इन्द्रियों का संयम करना। जब तक अपने विचारों पर इतना अधिकार न हो जाए कि अपनी धारणा एवं भावना के विरुद्ध एक भी विचार न पाए, तब तक वह पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं है। पाइथागोरस कहता है-No man is free, who cannot command himself, जो व्यक्ति अपने आप पर नियन्त्रण नहीं कर सकता है, वह स्वतन्त्र नहीं हो सकता। और, अपने आप पर शासन करने की शक्ति, बिना ब्रह्मचर्य के नहीं पा सकती। भारतीय-संस्कृति में शील को परम भूषण कहा गया है। प्रात्म-संयम मनुष्य का सर्वोत्कृष्ट सद्गुण है। ब्रह्मचर्य का अर्थ--स्त्री-पुरुष के संयोग एवं संस्पर्श से बचने तक ही सीमित नहीं है। वस्तुत: आत्मा को अशुद्ध करने वाले विषय-विकारों एवं समस्त वासनाओं से मुक्त होना ही ब्रह्मचर्य का मौलिक अर्थ है । आत्मा की शुद्ध परिणति का नाम ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य प्रात्मा की नि म ज्योति है। अतः मन, वचन एवं कर्म से वासना का उन्मूलन करना ही ब्रह्मचर्य है।' बाह्यरूप में स्त्री-संस्पर्श एवं सहवास का परित्याग ब्रह्मचर्य के अर्थ को पूर्णतःस्पष्ट नहीं करता। एक व्यक्ति स्त्री का स्पर्श नहीं करता और उसके साथ सहवास भी नहीं करता, परन्तु विकारों से ग्रस्त है। रात-दिन मानसिक विषय-वासना के बीहड़ जंगल में मारा-मारा फिरता है, तो उसे हम ब्रह्मचारी नहीं कह सकते। और. किसी विशेष परिस्थिति में निर्विकार-भाव से स्त्री को छू लेने मात्र से ब्रह्म-साधना नष्ट हो जाती है, ऐसा कहना भी भूल होगी। गाँधीजी ने एक जगह लिखा है-“ब्रह्मचारी रहने का यह अर्थ नहीं है कि मैं किसी स्त्री का स्पर्श न करूँ, अपनी बहन का स्पर्श भी न करूँ। ब्रह्मचारी होने का अर्थ है कि स्त्री का स्पर्श करने से मेरे मन में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न न हो, जिस तरह कि कागज को स्पर्श करने से नहीं होता।" अन्तर्मन की निर्विकार दशा को ही वस्तुतः ब्रह्मचर्य कहा गया है। जैनागमों में भी साधु-साध्वी को आपत्ति के समय आवश्यकता पड़ने पर एक-दूसरे का स्पर्श करने का प्रादेश दिया गया है। साधु नदी के प्रवाह में प्रवहमान साध्वी को अपनी बाहों में उठाकर बाहर ला सकता है। असाध्य बीमारी के समय, यदि अन्य साधु-साध्वी सेवा करने योग्य न हों, तो साधु भ्रातृ-भाव से साध्वी की और साध्वी भगिनीभाव से साधु की परिचर्या कर सकती है। आवश्यक होने पर एक-दूसरे को उठा-बैठा भी सकते हैं। फिर भी उनका ब्रह्मचर्य-व्रत भंग नहीं होता। परन्तु, यदि परस्पर सेवा करते समय भ्रातृत्व एवं भगिनी-भाव की निर्विकार सीमा का उल्लंघन हो जाता है, मनमस्तिष्क के किसी भी कोने में वासना का बीज अंकुरित हो उठता है, तो उनकी ब्रह्मसाधना अवश्य दूषित हो जाती है। ऐसी स्थिति में वे प्रायश्चित के अधिकारी बताए गए हैं। विकार की स्थिति में ब्रह्मचर्य की विशुद्ध साधना कथमपि सम्भवित नहीं रहती। इससे स्पष्ट होता है कि पागम में साधु-साध्वी को उच्छखल रूप से परस्पर या अन्य स्त्री-पुरुष का स्पर्श करने का निषेध है। क्योंकि उच्छृखंल भाव से सुषुप्त वासना 1 To attain to perfect purity one has to become absolutely passionfree in thought, speech and action. -Gandhi (My Experiment with Truth) ब्रह्मचर्य : साधना का सर्वोच्च शिखर २८६ www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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