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________________ के जागृत होने की सम्भावना है, और वासना का उदय होना साधना का दोष है। अतः वासना का त्याग एवं वासना को उद्दीप्त करने वाले साधनों का परित्याग ही ब्रह्मचर्य है। वासना, विकार एवं विषयेच्छा प्रात्मा के शुद्ध भावों को विनाशक है। अतः जिस समय आत्मा के परिणामों में मलिनता आती है, उस समय ब्रह्म-ज्योति स्वतः ही धुमिल पड़ जाती है। 'ब्रह्मचर्य' शब्द भी इसी अर्थ को स्पष्ट करता है। ब्रह्मचर्य शब्द का निर्माण'ब्रह्म' और 'चर्य' इन दो शब्दों के संयोग से हुआ है। 'ब्रह्मचर्य' अर्थात् ब्रह्म की, पवित्रता की शोध में चर्या अर्थात् प्रवृत्ति, आचरण । ब्रह्म का अर्थ है-आत्मा का शुद्ध-भाव और चर्या का अभिप्राय है-चलना, गति करना या पाचरण करना। शुद्ध-भाव कहिए, या परमात्व-भाव कहिए, या सत्य कहिए-बात एक ही है। सब का ध्येय यही है, कि आत्मा को विकारी भावों से हटाकर शुद्ध परिणति में केन्द्रित करना । आत्मा की शुद्ध परिणति ही परमात्म-ज्योति है, परब्रह्म है, अनन्त सत्य की सिद्धि है, और इसे प्राप्त करने की साधना का नाम ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य की साधना, सत्य की साधना है, परमात्व-स्वरूप की साधना है। ब्रह्म-व्रत की साधना, वासना के अन्धकार को मूलतः विनुष्ट करने की साधना है। भारत के प्राचीन योगी, ऋषि एवं मुनियों ने ब्रह्मचर्य शब्द की व्याख्या करते हुए बताया है कि आठ प्रकार के मैथुन से विरत होना ही ब्रह्मचर्य है। वे आठ मैथुन इस प्रकार हैं:-स्मरण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गुह्य-भाषण, संकल्प, अध्यवसाय और सम्भोग। इन आठ प्रकार के मैथुन-भाव का परित्याग ही वस्तुतः ब्रह्मचर्य शब्द का मौलिक अर्थ है। भारत के विभिन्न धर्मशास्त्रों में ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधक को चेतावनी देते हुए कहा गया है कि वत्स! इन आठ प्रकार के मैथुन में से किसी एक का भी सेवन करना ब्रह्मचर्य-साधक के लिए वर्जित है। काम का जन्म पहले मन में होता है, फिर वह शरीर में पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है। स्मरण से लेकर सम्भोग तक मैथुन के, जो पाठ भेद बतलाए हैं, उनमें मानसिक, वाचिक एवं कायिक सभी प्रकार का प्रब्रह्मचर्य आ जाता है। इस अब्रह्मचर्य से, अपनी वीर्य शक्ति के संरक्षण करने का आदेश और उपदेश समय-समय पर शास्त्रकारों ने दिया है। मनुष्य के मन को विकार और वासना की ओर ले जाने वाले, उसके मनो प्रौर इन्द्रियाँ है। मनष्य जैसा विचार करता है, वैसा ही प्रायः वह बोलता है और जैसा बोलता है, वैसा ही वह आचरण भी करता है। अतः विचार, वाणी और आचार पर उसे संयम रखना चाहिए । ब्रह्मचर्य के उपदेश में एक-एक इन्द्रिय को वश में करने पर विशेष बल दिया गया है। इन्द्रियों के निग्रह को ब्रह्मचर्य कहा गया है। ब्रह्मचर्य के लिए भारतीय साहित्य में इन शब्दों का प्रयोग उपलब्ध होता है"उपस्थ-संयम, वस्ति-निरोध, मैथुन-विरमण, शील और वासना-जय ।" योग-सम्बन्धी ग्रन्थों में ब्रह्मचर्य का अर्थ इन्द्रिय-संयम किया गया है। अथर्व वेद में वेद को भी ब्रह्म कहा गया है। अतः वंद के अध्ययन के लिए आचरणीय कर्म, ब्रह्मचर्य है । ब्रह्म का अर्थ परमात्वभाव किया जाता है। उस परमात्म भाव के लिए जो अनुष्ठान एवं साधना की जाती है, वह ब्रह्मचर्य है। बौद्ध पिटको में ब्रह्मचर्य शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। दीघनिकाय के 'महापरिनिव्याण सुत्त' में ब्रह्मचर्य शब्द का प्रयोग--बुद्ध प्रतिपादित धर्म-मार्ग के अर्थ में हुअा है। दीघनिकाय के पोटुपाद में ब्रह्मचर्य का अर्थ है-बौद्ध धर्म में निवास । विसुद्धिमग्गो के प्रथम भाग में ब्रह्मचर्य का अर्थ वह धर्म है, जिससे निर्वाण की प्राप्ति हो। वंग १. स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्य-भाषणम् । __संकल्पोऽध्यवसायश्च त्रिया-निवत्तिरेव च ।। २६० पन्ना समिक्खए धम्म www.jainelibrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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