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________________ शिष्य प्रश्न करता है - "भंते! संथारा करने वाले भिक्षु के द्वारा भक्त-पान ग्रहण कर लेने पर यदि कोई आग्रही निन्दा करे, तो क्या होता है ?" आचार्य कहते हैं--"जो उसकी निन्दा करता है, जो उसकी भर्त्सना करता है, उसको चार मास का गुरु प्रायश्चित्त प्राता है । ६७ पशुओं के बन्धन-मोचन का उत्सर्ग और अपवाद : भिक्षु आत्म-साधना एक धारा से सतत निरत रहनेवाला साधक है । वह गृहस्थ के संसारी कार्यों में किसी प्रकार का भी न भाग लेता है, और न उसे ठीक ही समझता है । वह गृहस्थ के घर पर रहकर भी जल में कमल के समान सर्वथा निर्लिप्त रहता है । श्रतएव भिक्षु को गृहस्थ के यहाँ बछड़े आदि पशुओं को न बांधना चाहिए और न खोलना चाहिए । यह उत्सर्ग मार्ग है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि भिक्षु की साधना एक चेतना शून्य जड़ साधना है । श्रत: कैसी भी दुर्घटना हो, वह अनुकम्पाहीन पत्थर की मूरत बन कर बैठा रहेगा । कल्पना कीजिए- -आग लग जाए, बाढ़ का पानी चढ़ आए, वृकादि हिंसक पशु श्राक्रमण करने वाले हों, अथवा अन्य कोई विषम स्थिति हो, तो क्या किया जाए? क्या इस स्थिति में भी पशुओं को सुरक्षित एकान्त स्थान में न बाँधे, उन्हें यों ही अनियंत्रित घूमने दे और मरने दे ? नहीं, निशीय भाष्यकार के शब्दों में शास्त्राज्ञा है कि उक्त अपवादपरक स्थितियों में पशुओं को सुरक्षा के लिए बाँधा जा सकता है।" जो दृष्टि बाँधने के सम्बन्ध में है, वहीं खोलने के सम्बन्ध में भी है। गृहस्थ प्रति चापलूसी का दीन भाव रख कर कि वह मुझ पर प्रसन्न रहेगा, फलस्वरूप मन लगा कर सेवा करेगा, गृहस्थ का कोई भी संसारी कार्य न करे। परन्तु, यदि पशु प्राग लगने पर जलने जैसी स्थिति में हों, गाढ़ बन्धन के कारण छटपटा रहे हों, तो सुरक्षा के लिए पशुओं को खोल भी सकता है ।" यह अपवाद मार्ग है, जो ग्रनुकम्पा - भाव से विशेष परिस्थिति अपनाया जा सकता है | अतिचार और अपवाद का अन्तर : अतिचार और अपवाद का अन्तर समझने जैसा है । बाह्य रूप में अपवाद भी प्रतिचार ही प्रतिभासित होता है। जिस प्रकार अतिचार में दोष सेवन होता है, वैसा ही अपवाद में भी होता है, अतः बहिरंग में नहीं पता चलता कि अतिचार और अपवाद में ऐसा क्या अन्तर है कि एक त्याज्य है, तो दूसरा ग्राह्य है । प्रतिचार और अपवाद का बाहर में भले ही एक जैसा रूप हो, परन्तु दोनों की पृष्ठ - भूमि में बहुत बड़ा अन्तर है । प्रतिचार कुमार्ग है, तो अपवाद सुमार्ग है । प्रतिचार धर्म है, तो अपवाद धर्म है। अतिचार संसार का हेतु है, तो श्रपवाद मोक्ष का हेतु है । ६७. यस्तु तं भक्तपरिज्ञाव्याघातवन्तं खिसति । ( भक्तप्रत्याख्यान प्रतिभग्न एष इति) तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा अनुद्घाता गुरुकाः । - व्यवहार भाष्य वृत्ति १० उद्देश, गा० ५५१ ६८. बितियपदमणप्पज्झे, बंधे अविकोविते व अप्पज्झे । fresses अगणि आऊ, सणफगादीसु जाणमवि ।।३६८३ ।। - निशीथ भाष्य faeer as arणि श्राऊसु मरिज्जिहिति त्ति, वृगादिसणप्फएण वा मा खिज्जिहि त्ति एवं जागो वि बंध | -- निशीथचूर्णि ६६. बितियपदमणप्पज्झे, मंत्रे प्रविकोविते व अपज्झे । जाणते वा वि पुणो, बलिपासम-प्रगणिमादीसु || ३६८४|| - - निशीथ भाष्य बलिपासोति बंधणी, तेण अईब गाढं बद्धो मुढो वा तडफडेइ, मरइ वा जया, तया मुंबई । अगणि ति पलवणगे बद्धं मुंचे, मा उज्झिहिति । -- निशीथ चूर्णि २४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only ear after धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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