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________________ आधाकर्म आहार का उत्सर्ग और अपवाद : उत्सर्ग मार्ग में आधार्मिक आहार भिक्षु के लिए अभक्ष्य कहा गया है। वह भिक्षु की कल्प-मर्यादा में नहीं है। परन्तु, कारणवशात अपवाद मार्ग में वह प्राधाकर्म आहार भी अभक्ष्य नहीं रहता। सूत्रकृतांग सूत्र का अभिप्राय है, कि पुष्टालंबन की स्थिति में प्राधाकर्मिक आहार ग्रहण करने वाले भिक्षु को एकान्त पापी कहना भूल है। उसे एकान्त पापी नहीं कहा जा सकता। ___ आचार्य शीलांक, उक्त सूत्र पर विवेचण करते हुए स्पष्ट लिखते हैं कि "अपवाद' दशा में श्रुतोपदेशानुसार आधा-कर्म आहार का सेवन करता हुमा भी साधक शुद्ध है, कर्म से लिप्त नहीं होता है। अतः एकान्त रूप में यह कहना कि आधाकर्म से कर्म-बन्ध होता ही है, ठीक नहीं है । ६२ । निशीथ भाष्य में भी दुभिक्ष आदि विशेष अपवाद के प्रसंग पर आधाकर्म आहार ग्राह्य बताया गया है। ६३ ।। संथारे में आहार ग्रहण का अपवाद : किसी भिक्षु ने भक्त प्रत्याख्यान (संथारा) कर लिया है अर्थात आहार-ग्रहण का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया है। शिष्य प्रश्न करता है- "भंते ! कदाचित उस भिक्षु को क्षुधा सहन न कर सकने के कारण उत्कट असमाधिभाव हो जाए, और वह भक्तपान मांगने लगे, तो उसे देना चाहिए, कि नहीं?" व्यवहार भाष्य वत्ति में इस का सुन्दर समाधान दिया गया है। आचार्य मलयगिरि कहते हैं--"भिक्षु को असमाधि भाव हो आने पर यदि वह स्थिरचित्त न रहे और भक्तपान मांगने लगे, तो उसे भक्त-पान अवश्य दे देना चाहिए। क्योंकि उसके प्राणों की रक्षा के लिए आहार कवच है।"६४ शिष्य पूछता है, कि:--"त्याग कर देने पर भी भक्त-पान क्यों देना चाहिए ?"६५ प्राचार्य कहते हैं ___ "भिक्षु की साधना का लक्ष्य है, कि वह परीषह की सेना को मनःशक्ति से, वच: शक्ति से और काय-शक्ति से जीते । परीषह सेना के साथ युद्ध वह तभी कर सकता है, जब कि समाधि-भाव रहे। और भक्त-पान के बिना समाधि भाव नहीं रह सकता है। अतः उसे कवच-भूत आहार देना चाहिए।" ६०. जे भिक्ख प्राहाकम्मं भुंज इ, भुजंतं वा सातिज्जइ । —निशीथ सूत्र १०, ६ ६१. अहाकम्माणि भुजति, अण्णमण्णे सकम्मणा । उवलिते ति जाणिज्जा, अणवलित्ते ति वा पूणो ।।८।। - एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो न विज्जइ। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ।।६।। -सूत्रकृतांग, २, ५ ६२. प्राधाकर्माऽपि श्रुतोपदेशेन शुद्धमिति कृत्वा भुजानः कर्मणा नोपलिप्यते । तदाधाकर्मोप भोगेनावश्यकर्मबन्धो भवति, इत्येवं नो वदेत् । ६३, असिवे ओमोयरिए, रायटठे भए व गेलण्णे । टीका अद्धाण रोहए वा, घिति पहुच्चा व आहारे ।।--निशीथ भाष्य, गाथा २६८४ ६४. अशने पानके च याचिते, तस्य भक्त पानात्मकः कवचभत पाहारो दातव्यः । -व्यवहार भाष्य वृति उ० १० गा०५३३ ६५. अथ किं कारणं, प्रत्याख्याय पुनराहारो दीयते? ६६. हंदि परीसहचम, जोहेयव्वा मणेण काएण। तो मरण-देसकाले कवयभओ उ पाहारो।।-व्यवहार भाष्य, उ०, १० गा० ५३४ परीषह सेना मनसा कायेन (वाचा च) योधेन जेतव्या । तस्याः पराजयनिमित्तं मरण देशकाले (मरण समये) योधस्य कवचभूत पाहारो दीयते । व्यवहार भाष्य वृत्ति उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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