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________________ मूल बात यह है कि अतिचार के मूल में दर्प रहता है, मोहोदय का भाव रहता है। क्रोधादि कषायभाव से, वासना से, संसार सुख की कामना से बिना किसी पुष्टालम्बन के, उत्सर्ग संयम का परित्याग कर जो विपरीत श्राचरण किया जाता है, वह अतिचार है । प्रतिचार से संयम दूषित होता है, अतः वह त्याज्य है । यदि मोहोदय के कारण कभी प्रतिचार का सेवन हो भी जाता है, तो प्रायश्चित्त के द्वारा उसकी शुद्धि करनी होती है । अन्यथा, भिक्षु विराधक हो जाता है, और पथभ्रष्ट होकर संसार - कान्तार में भटक जाता है। अब रहा अपवाद । इसके सम्बन्ध ने पहले भी काफी प्रकाश डाला जा चुका है । "यदि मैं अपवाद का सेवन नहीं करूँगा, तो मेरे ज्ञानादि गुणों की अभिवृद्धि न होगी" - इस विचार से ज्ञानादि के योग्य सन्धान के लिए जो प्रतिसेवना की जाती है, वह सालम्ब सेवना है। और यही अपवाद का प्राण है। अपवाद के मूल में ज्ञानादि सद्गुणों के अर्जन तथा संरक्षण की पवित्र भावना ही प्रमुख है । निशीथ भाष्यकार ने ज्ञानादि-साधना के सम्बन्ध में बहुत ही महत्त्वपूर्ण उल्लेख किया है । वे कहते हैं कि जिस प्रकार अंध गर्त में पड़ा हुआ मनुष्य लताओं का अवलम्बन कर बाहर तट पर या जाता है, अपनी रक्षा कर लेता है, उसी प्रकार संसार गर्त में पड़ा हुआ साधक भी ज्ञानादि का अवलम्बन कर मोक्ष तट पर चढ़ प्राता है, सदा के लिए जन्ममरण के कष्टों से निजात्मा की रक्षा कर लेता है। अतः उत्सर्ग के समान अपवाद भी संयम है, अतिचार नहीं । कषाय-भाव से प्रेरित प्रवृत्ति प्रतिचार है, तो संयम भाव से प्रेरित वही प्रवृत्ति अपवाद है । अतएव अतिचार कर्म-बन्ध का जनक है, तो अपवाद कर्म-क्षय का कारण हैं । ७३ बाहर में स्थूल दृष्टि से एकरूपता होते हुए भी, अन्दर में अन्तर है, श्राकाश-पाताल जैसा महान् अन्तर है । एक भगवान् की आज्ञा में है, तो दूसरा भगवान् की आज्ञा से बाहर है । पुष्टालम्बन वह अदभुत रसायन है, जो प्रकल्प को भी कल्प बना देती है, अतिचार को भी प्राचार का रूप देती है । उपसंहार : उत्सर्ग और अपवाद छेद सूत्रों का मर्मस्थल है । अतएव भाष्यों, चूर्णियों तथा तत्सम्बन्धित अन्य चार ग्रन्थों में प्रस्तुत विषय पर इतना अधिक विस्तृत विवेचन किया गया है कि यह क्षुद्र निबन्ध समुद्र में की एक नन्हीं बूंद जैसा लगता है, वस्तुतः बूंद भी नहीं । ७०. प्रतिसेवना के दो रूप है---दपिका और कल्पिका। बिना पुष्टालम्बनरूप कारण के की जाने वाली प्रतिसेवना दपिका है, और वह अतिचार है । तथा विशेष कारण की स्थिति में की जाने वाली प्रतिसेवना कल्पका है, जो अपवाद है और वह भिक्षु का कल्प है- आचार है। या कारणमन्तरेण प्रतिसेवना क्रियते सा दपिका, या पुनः कारणे सा कल्पिका । ७१. णाणादी परिवुड्ढी, ण भविस्सति मे असेवते दितियं, तेसि पसंधणट्टा, सालंबणिसेवणा एसा ||४६६|| निशीय भाष्य ७२. संसार गड्ड-पडितो, णाणादवलंबितुं समारुति । मोक्खतइं जध पुरिसो, बल्लिविताणेण विसमा उ ।।४६५|| -- निशीथ भाष्य --व्यवहार भाष्य वृत्ति उ० १० गा० ३५ ७३. अना विहु पडिसेवा, साउन कम्मोदएण जा जयता । सा कम्मम्खयकरणी, दप्पाऽजय कम्मजणणी उ ।। -व्यवहार भाष्य, उ० १ ४२ या कारण यतमानस्य यतनया प्रवर्तमानस्य प्रतिसेवना, सा कर्मक्षयकरणी। सूत्रोक्तनीत्या कारणे यतमानस्य ततस्तनाज्ञाराधनात् । यतनया उत्सर्ग और अपवाद : दोनों ही मार्ग Jain Education International व्यवहार भाष्यवृत्ति For Private & Personal Use Only २४७ www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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