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________________ काल्पनिक सत्य । यह किसी सर्वोच्च सत्ता के रूप में मान गए, ईश्वर, खुदा या गौड की देन भी नहीं है और न ऐसी किसी तथाकथित शक्ति-विशेष से प्रशासित है। इस प्रकार उक्त अखण्ड, अविनाशी सत्ता का न कोई कर्ता है और न हर्ता है। यह अपने आप में शतप्रतिशत पूर्ण है, स्वतन्त्र है। पूर्ण और स्वतन्त्र अर्थात् सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र । इसकी अपनी नियम-बद्धता भी निश्चित है अर्थात् स्वतन्त्र है। इसके अस्तित्व में कोई हेतु नहीं है। तर्क की भाषा में कहा जाए, तो कह सकते है-"सत्ता, सत्ता है, क्योंकि वह सत्ता है।" इस विराट् विश्व की व्यवस्था का मूल सूत्र है-'सत्ता'। इसके अनेकानेक महत्त्वपूर्ण अंश मानव-बुद्धि के द्वारा परिज्ञात हो चके हैं, फिर भी मानव का तर्कशील मस्तिष्क अभी तक विश्व के अनन्त रहस्यों का ठीक तरह उद्घाटन नहीं कर पाया है, न इसकी विराट-शक्ति का कोई एक निश्चित माप ही ले सका है। विश्व की सूक्ष्मतम सीमाओं की खोज में, उसकी अज्ञात अतल गहराइयों को जानने की दिशा में मानव अनादि-काल से प्रयत्न करता आ रहा है। उसे एक सर्वथा अज्ञात रहस्य मान कर अथवा अनावश्यक प्रपंच समझ कर, वह कभी चुप नहीं बैठा है। शोध की प्रक्रिया निरन्तर चालू रही है। इसी अज्ञात को ज्ञात करने की धुन में विज्ञान के चरण निरन्तर आगे, और आगे बढ़ते रहे हैं, और वह अनेकानेक अद्भुत रहस्यों को रहस्य की सीमा में से बाहर निकाल भी लाया है। फिर भी, अभी तक निर्णयात्मक रूप से यह नहीं कहा जा सकता है---"विश्व का यह अभिव्यक्त मानचित्र अन्तिम है। इसकी यह इयत्ता है, आगे और कुछ नहीं है।" सचमुच ही सर्व-साधारण जन-समाज के लिए यह विश्व एक पहेली है, जो कितनी ही बार बूझी जा कर भी अनबूझी ही रह जाती है। चेतन और अचेतन : साधारण मानव-बुद्धि के लिए भले विश्व आज एक पहेली हो, किन्तु भारतीय तत्त्वदर्शन ने इस पहेली को ठीक तरह सुलझाया है। भारत का तत्त्व-दर्शन कहता है, कि विश्व की सत्ता के दो मौलिक रूप हैं--जड़ और चेतन । सत्ता का, जो चेतन भाग है, वह संवेदनशील है, अनुभूति-स्वरूप है। किन्तु, जड़ भाग उक्त शक्ति से सर्वथा शून्य है। यही कारण है, कि चेतन की अधिकांश प्रवृत्तियाँ पूर्व-निर्धारित होती हैं। अपनी इस निर्धारण की क्रिया में, उपयोग की धारा में, चेतन स्वतन्त्र है। किन्तु, जड़ सर्वथा अचेतन है, चेतनाशून्य है। अतः जड़ की अपनी क्रिया में स्वयं जड़ का अपना कोई हेतु नहीं है। जड़ की क्रिया होती है, सतत होती है, परन्तु वह कोई हेतु एवं लक्ष्य निर्धारित करके नहीं होती। चेतन : आनन्द की खोज में : चेतन, अनादि-काल से आनन्द की खोज में रहा है। आनन्द ही उसका चरम लक्ष्य है. अन्तिम प्राप्तव्य है। चेतन को अपनी जीवन-यात्रा में तन और मन के चरम पा मिले हैं, भौतिक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हुई हैं और वह इनमें उलझता भी रहा है, अटकता और भटकता भी रहा है। इन्हें ही वह अपना अन्तिम प्राप्तव्य मानकर सन्तुष्ट होता रहा है। परन्तु, यह मानन्द क्षणिक है। साथ ही दुःख-संपृक्त भी है। विष-मिश्रित मधुर मोदक जैसी स्थिति है इसकी । अत: जागृत चेतन कुछ और झांकने लगता है, शाश्वत, दुःखमुक्त आनन्द की खोज में प्रागे चरण बढ़ा देता है। उक्त सच्चे और स्थायी आनन्द की खोज ने ही मोक्ष के अस्तित्व को सिद्ध किया है--परम्परागत दृष्ट जीवन से परे अनन्त, असीम, आनन्दमय जीवन का परिबोध दिया है। जड़ की स्वयं अपनी ऐसी कोई खोज नहीं है। जड़ की सक्रियता स्वयं उसके लिए सर्वतोभावेन निरुद्देश्य है, जबकि चेतन की क्रियाशीलता सोद्देश्य है। चेतन का परम उद्देश्य क्या है और वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?--इसी विश्लेषण की दिशा में मानव हजारों-हजार वर्षों से प्रयत्न कर रहा है। यह चिन्तन,,यह मनन, यह प्रयत्न ही चेतन का अपना स्व-विज्ञान है, जिसे शास्त्र की भाषा पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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