SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में अध्यात्म कहते हैं। अध्यात्म-भूमिका ज्यों ही स्थिर स्थिति में पहुँचती है, साधक के अन्तर में से सहज प्रानन्द का अक्षय-स्रोत फूट पड़ता है। चेतन के स्वरूप-बोध का मूलाधार : स्थूल दृश्य पदार्थों को आसानी से समझा जा सकता है, उनकी स्थिति एवं शक्ति का प्रासानी से अनुमापन हो सकता है, किन्तु चेतना के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है। चेतना अत्यन्त सूक्ष्म तथा गूढ़ है। दर्शन की भाषा में 'अणोरणीयान्' है । साधारण मानव-बुद्धि के पास तत्त्व-चिन्तन के, जो इन्द्रिय एवं मन आदि ऐहिक उपकरण हैं, वे बहुत ही अल्प हैं, सीमित हैं। साथ ही सत्य की मूल स्थिति के वास्तविक आकलन में अधूरे है, अक्षम हैं। इसके माध्यम से चेतना का स्पष्ट परिबोध नहीं हो पाता है। केवल ऊपर की सतह पर तैरते रहने वाले भला सागर की गहराई को कैसे जान सकते हैं ? जो साधक अन्तर्मुख होते हैं--साधना के पथ पर एक निष्ठा से गतिमान रहते हैं--चेतना के चिन्तन तक ही नहीं, अपितु चेतना के ज्ञान-विज्ञान तक पहुँचते हैं-निजानुभूति की गहराई में उतरते हैं, वे ही चेतना के मूल-स्वरूप का दिन के उजाले की भाँति स्पष्ट परिबोध पा सकते हैं। विश्व को क्षणभंगुरता : ____ भारतीय-दर्शन और भारतीय-संस्कृति में दुःख और क्लेश तथा अनित्यता और क्षणभंगुरता के सम्बन्ध में बहुत-कुछ लिखा गया है, और बहुत-कुछ कहा गया है। यही कारण है, कि पाश्चात्य विद्वान् भारतीय दर्शन की उत्पत्ति अनित्यता और दुःख में से ही मानते हैं। क्या दुःख और अनित्यता भारतीय दर्शन का मुल हो सकता है ? यह एक गम्भीर प्रश्न है, जिस पर भरपूर चिन्तन, मनन एवं विचार किया गया है। जीवन' अनित्य है और जीवन दुःखमय है, इस चरम सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता। संभवतः पाश्चात्य-जगत् के विद्वान् भी इस सत्य को ओझल नहीं कर सकते । जीवन को अनित्य, दुःखमय, क्लेशमय, क्षणभंगुर मान कर भी भारतीय दर्शन आत्मा को एक अमर और शाश्वत तत्त्व मानता है। प्रात्मा को अमर और शाश्वत मानने का यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता. कि उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है। परिवर्तन तो जगत् का एक शाश्वत नियम है। चेतन और अचेतन, दोनों में ही परिवर्तन होता है। किन्तु, इतनी बात अवश्य है, कि जड़गत परिवर्तन की प्रतीति शीघ्र हो जाती है, जबकि चेतनगत परिवर्तन की प्रतीति शीघ्र नहीं हो पाती। यदि चेतन में परिवर्तन नहीं होता, तो प्रात्मा का दुःखी से सुखी होना, यह कैसे संभव हो सकता था? जीवन और जगत् में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है, दर्शन-शास्त्र का यह एक चरम सत्य है। भारतीय दर्शन अनित्य में से, दुःख में से जन्म लेता है। श्रमण भगवान् महावीर ने कहा है--"अणिच्चे जीव-लोगम्मि।" यह संसार अनित्य है और क्षणभंगुर है। क्या ठिकाना है इसका ? कौन यहाँ पर अजर-अमर बनकर आया है ? संसार में शाश्वत और नित्य कुछ भी नहीं है। यही बात तथागत बुद्ध ने भी कही है-"प्रणिच्चा संखारा।" यह संस्कार अनित्य है, क्षणभंगुर है। विशाल बुद्धि महर्षि व्यास ने भी कहा है "अनित्यानि शरीराणि, विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः, कर्तव्यो धर्म-संग्रहः ॥" ----शरीर अनित्य है, धन-वैभव भी अनित्य है, शाश्वत नहीं है। मृत्यु सदा सिर पर मंडराती रहती है, न जाने कब मत्यु आ कर पकड़ ले । अतः जितना हो सके, धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। भारतीय संस्कृति एवं दर्शन का यह अटल विश्वास है, कि मौत हर इन्सान के पीछे छाया की तरह चल रही है। जिस दिन जन्म लिया था, जिस दिन माँ के गर्भ में अवतरित प्रात्म-चेतनाः मानन्द की तलाश में Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy