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________________ आत्म- चेतना : आनन्द की तलाश में भारतीय दर्शन और तत्त्व-चिन्तन ने एक बात मानी है, कि इस विराट् विश्व का अस्तित्व दो प्रमुख तत्त्वों पर निर्भर है।' दो तत्त्वों का मेल ही इस विश्व- स्थिति का आधार है । उनमें से एक है— शाश्वत, चिन्मय और अरूप । दूसरा है— क्षणभंगुर, अचेतन, रूपवान । प्रथम को, जीव कहा गया है और दूसरे को, जड़-पुद्गल । यह शरीर, ये इन्द्रियाँ, ये महल और यह धन-संपत्ति, सब पुद्गल का खेल हैं। ये कभी बनते हैं, कभी मिटते हैं । पुद्गल का अर्थ ही है- “ पूरणात् गलनाद् इति पुद्गलः " मिलना और गलना । संघात और विघात, यही पुद्गल का लक्षण है । यह विराट् विश्व परमाणुओं से भरा हुआ है । इनमें से भी कुछ परमाणु-पिण्डों का मिलन हुआ नहीं, कि शरीर का निर्माण हो गया । एक अवस्था एवं काल तक इसका विकास होता है और फिर बिखर जाता है। इसी प्रकार धन, ऐश्वर्य एवं मकान है । अनन्त काल ये तस्व चैतन्य के साथ मिल कर घूम रहे हैं, संसार का चक्कर लगा रहे हैं। अनन्त - श्रनन्त बार शरीर आदि के रूप में एक साथ मिले, नये-नये खेल किए और फिर गलने लगे, बिखर गए । प्रकाश में बादलों का खेल होता है। एक समय यह अनन्त श्राकाश साफ है, सूर्य का प्रकाश चमक रहा है, किन्तु कुछ ही समय बाद काली काली जल से भरी हुई घटाएँ घुमड़ती - मचलती चली आती हैं, आकाश में छा जाती हैं और सूर्य का प्रकाश ढक जाता है । फिर कुछ समय बाद हवा का एक प्रचण्ड झोंका आता है, बादल चूर-चूर हो कर बिखर जाते हैं, आकाश स्वच्छ हो जाता है और सूर्य फिर पहले की तरह चमकने लगता है । यह पुद्गलों का रूप है । एक क्षण बिजली चमकती है, प्रकाश की लहर उठती है और दूसरे ही क्षण बुझ जाती है, समूचा दृश्य अन्धकार में डूब जाता है । इस ष्टादृष्ट अनन्त विश्व की सर्वात्मवादी व्याख्या सत्ता पर आधारित है । 'सत्ता' अर्थात् सामान्य, 'सामान्य' अर्थात् 'द्रव्य' अर्थात् अविनाशी मूल तत्त्व । सत्ता के दो मूल रूप हैं - जड़ और चेतन । ये दोनों ही तस्व विश्व के अनादि-निधन मौलिक भाग I दोनों परिवर्तनशील हैं, क्रिया-धारा में प्रवहमान हैं। एक क्षण के लिए भी कोई क्रियाशून्य नहीं रह पाता । कभी स्वतन्त्र रूप से, तो कभी पारस्परिक प्रभाव प्रतिप्रभाव से क्रियाप्रतिक्रिया का चक्र चलता ही रहता है। हम सब, जो यह परिवर्तन चक्र देख रहे हैं, वह किसी ऐसे आधार की ओर संकेत देता है, जो परिवर्तित हो कर भी परिवर्तित नहीं होता अर्थात् अपनी मूल स्वरूप स्थिति से कभी भी च्युत नहीं होता । और वह आधार क्या है ? दर्शन का उत्तर है- 'सत्ता' । सत्ता अर्थात् अनादि अनन्त मूल तत्त्व । सत्ता का जन्म नहीं है । इसलिए उसकी आदि नहीं है । और सत्ता का विनाश नहीं है, न स्वरूप परिवर्तन है । इसलिए उसका अन्त भी नहीं है । सत्ता, जिसके जड़ और चेतन — दो रूप हैं, अपने में एक वास्तविक शाश्वत तत्व है। यह न कोई आकस्मिक संयोग है और न कोई १. जैन-दर्शन एवं वैदिक-दर्शन आदि में अनेकरूपी और रूपी तत्त्व अर्थात् द्रव्य स्वीकृत हैं । किन्तु, यहाँ मुख्य रूप से पुद्गल और आत्म-तत्व की चर्चा है। मुख्य रुप से दोनों के मिलन से ही संसार है और परस्पर में दोनों की नियुक्ति — पार्थक्य होते ही श्रात्मा की मुक्ति है और यही परमात्म-भाव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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