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योग भव्य है, सुखद महत्त है,
किन्तु, योग से क्षेम महत्ततर। अतः व्यर्थ ही नहीं गंवाएँ,
चिन्तामणी-सा नर भव पाकर ॥
अमृत-जल
से गन्दी-नाली, धोने में है क्या मतीमतता। के बना कोयले, विक्रय कर कैसी धनवतता॥
चन्दन तरु
--उपाध्याय अमरमुनि
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पन्ना समिक्खए धम्म
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