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________________ सेठ ने गरज कर कहा - "अरे, वह तो चन्दन था। तूने गजब कर दिया । तुझे कब अक्ल आएगी ?" सेठानी ने तुनक कर कहा - "मुझे क्या पता, कैसी लकड़ी हैं? लकड़ी थीं, जलाने के काम में ले लीं । जरूरत पड़ी तो क्या करे कोई? मैंने तो उनसे रोटी ही पकाई है । कोई बुरा काम तो किया नहीं ।" सेठानी को बेचारा सेठ क्या समझाए कि जिन लकड़ियों से हजारों-लाखों रुपए कमाए जा सकते थे और जो औषधि के रूप में हजारों लाखों लोगों को लाभ पहुँचा सकती थीं, उन्हें यों ही जलाकर राख कर डालना, क्या कोई समझदारी है ? यही स्थिति हमारे तन, धन और यौवन की है। जिस तन से संसार के सर्वश्रेष्ठ पद 'मुक्ति' की प्राप्ति हो सकती है, जिस जीवन से जगत् का मंगल-कल्याण हो सकता है, उस तन को, उस जीवन को कीडों-मकोड़ों की तरह गँवा देना, कौड़ी के मूल्य पर बर्बाद कर देना, क्या उस सेठानी की तरह ही बेवकूफी नहीं है ? इसलिए हमें जो कुछ प्राप्त हुआ है उस पर व्यर्थ ही इतराना नहीं चाहिए, बल्कि उसके सदुपयोग पर भी चिन्तन करना चाहिए। जब तक इन दोनों का सामंजस्य नहीं होगा, योग और क्षेम का समवतरण जीवन में नहीं होगा, तब तक मानव का कल्याण नहीं हो सकता । इस धरा पर जिन्हें मानव जीवन का योग मिला है, उन्हें अपने इस जीवन में क्षेम का भी ध्यान रखना चाहिए, जिससे उनका और विश्व का कल्याण हो सके । योग और क्षेम Jain Education International For Private & Personal Use Only १६३ www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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