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________________ धर्म का उद्देश्य क्या है ? एक बहुत ही पेचीदा और बहुत ही उलझा हुआ प्रश्न है कि जीवन और धर्म एक-दूसरे से पृथक् हैं या दोनों का केन्द्र एक ही है ? यह प्रश्न प्राज का नहीं, अनादि-काल का है। साधना के क्षेत्र में बढ़ने वाले हर गुरु और हर शिष्य के सामने यह प्रश्न आया है। इस प्रश्न ने अनेक चिन्तकों के मस्तिष्कों को झकझोरा है कि जीवन और धर्म का परस्पर क्या सम्बन्ध जिस प्रकार यह प्रश्न अनादिकाल से चला आ रहा है, उसी प्रकार इसका उत्तर भी अनादिकाल से दिया जाता रहा है। हर गुरु, हर आचार्य और हर तीर्थंकर के सामने यह समस्या आई है कि जीवन और धर्म का क्या सम्बन्ध है? और, सभी ने अपनी ओर से इसका समुचित समाधान दिया है। उन्होंने बतलाया है कि जहाँ द्रव्य है, वहीं उसका स्वभाव भी है, जहाँ अग्नि है, वहीं उसका गुण-उष्णता भी है। जीवन चैतन्य स्वरूप है, धर्म उसका स्वभाव है, तो फिर दोनों को पृथक-पृथक किस प्रकार किया जा सकता है ? जहाँ साधक है, जहाँ साधक की निर्मल चेतना की ज्योति जगमगाती है, वहीं धर्म का प्रकाश भी जगमगाता रहता है। इस प्रकार जीवन और धर्म का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । धर्म खिलौना नहीं है: जब-जब धर्म का स्वरूप बदला है, उसे किसी विशेष प्रकार की वेषभूषा, क्रियाकाण्ड और परंपराओं से बाँधकर अलग रूप देने का प्रयास किया गया है, तब-तब उसे एक अमुक सीमित काल की चीज करार देकर पुकारने का प्रयत्न भी हुआ है। कुछ समय से धर्म को एक ऐसा रूप दिया गया कि वह जीवन से अलग पड़ने लगा। स्थिति यहाँ तक बन गई कि जिस प्रकार छोटा बच्चा किसी खिलौने से घड़ी-दो घड़ी खेलता रहता है, और फिर उस खिलौने को पटक देता है, खिलौना टटफट जाता है और वह चल देता है। उसी प्रकार आज लोगों की, धर्म के सम्बन्ध में भी यही मनोवृत्ति बन रही है। वे धर्म की अमुक प्रकार की क्रियाओं को--सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, पूजापाठ आदि को घड़ी-दो घड़ी के लिए अपनाते हैं, कुछ थके-से और कुछ अलसाये-से क्रियाकाण्ड के रूप में धर्म के खिलौने से खेल लेते हैं और फिर इस कदर लापरवाही से पटक कर चल देते हैं कि धर्म से कोई वास्ता नहीं रखते। उन्हें फिर धर्म की कोई खबर नहीं रहती। इस प्रकार धर्म को दो-चार घड़ी की चीज मान लेने पर वह जीवन से भिन्न ही क्षेत्र की वस्तु बन गया। दैनिक जीवन के साथ उसका कोई सम्पर्क नहीं रहा और वह धर्म टुकड़ों में विभक्त हो गया । साधना की धारा, जो सतत अखण्ड प्रवाहित होनी चाहिए थी, वह अमुक देश, काल और परम्पराओं से बँधकर अवरुद्ध एवं क्षीण हो गई। जो धर्म जीवन का स्वामी था, वह अबोध मानव के हाथ का खिलौना मात्र बन कर रह गया, घड़ी-दो घड़ी के मनोरंजन की वस्तु बन गया। इस प्रकार धर्म की खण्डित-धारा जीवन में रस और आनन्द की लहर कैसे पैदा कर सकती है। धर्म की फलश्रुति : कुछ लोगों ने धर्म को इस जीवन की ही वस्तु समझा । उहोंने ऐश्वर्य, भोग और धर्म का उद्देश्य क्या है ? १६५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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