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________________ रूप माना गया है, तो इसका मतलब यही हुया कि वह अपने ईश्वरत्व को विकसित करना चाहता है। ईश्वर का अर्थ ही है स्वामी, समर्थ और प्रभु ! इसलिए प्रभुता चाहना, कोई गलत बात नहीं है, यह तो ग्रात्मा का स्वभाव है। घर में एक बच्चा है, आजादी से रहता है, राजा बनकर रहता है, वह भी जब देखता है कि घर में उसका अपमान किया जा रहा है, उसकी बात सुनी नहीं जाती है, तो वह तिलमिला उठता है, उसका 'मुड' बिगड़ जाता है। बहू भी घर में जब आती है और देखती है कि इस घर में उसे सम्मान नहीं मिल रहा है, सास, ससुर आदि उसे दासी की तरह समझ रहे हैं, तो विशाल ऐश्वर्य होते हुए भी वह घर उसके लिए 'नरक' के समान बन जाता है। वह यही कहेगी “धन को क्या चाटं ? जहाँ सम्मान नहीं, वहाँ जीना कैसा? सुख कैसा?" सहस्र-धारा-साधना : साधना की पवित्र स्रोतस्विनी सहस्रधारा के रूप में बहती रही है। जीवन को यदि हम एक खेत के रूप में देखें, तो उसमें हजारों-हजार क्यारियाँ हैं, हजारों-हजार नालियाँ हैं, हजारों-हजार पेड़-पौधे हैं, उन्हें सरसब्ज रखने के लिए साधना की हजारों-हजार धाराएँ बहती रहनी चाहिएँ, उनके शीतल मधुर जल का स्पर्श जीवन के खेत में सतत होता रहना चाहिए। जिस प्रकार खेती में कभी एक ही चीज नहीं बोई जाती, सैकड़ों-हजारों प्रकार के बीज बोए जाते हैं, सर्वांग खेती की जाती है, उसी प्रकार जीवन की साधना कभी एकांगी नहीं होती, वह सर्वांगीण होती है। हमारी आत्मा का स्वरूप अनन्त गुणात्मक है। प्राचार्य माघनन्दी ने इस सम्बन्ध में कहा है---"अनन्तगुणस्वरूपोऽहम्"--यह आत्मा अनन्त गुणों का अक्षय कोष है। यह बात कहने पर भी जब दार्शनिक प्राचार्य को लगा कि अभी बात परी कर नहीं सका हूँ, आत्मस्वरूप का परिचय पूर्णरूपेण नहीं दे सका हूँ, तो उन्होंने उपर्युक्त सूत्र को परिवर्धन के साथ पुनः दुहराया--- "अनन्तानन्तगुणस्वरूपोऽहम्" -~~-अनन्त ही नहीं, अनन्त-अनन्त गुणों का समवाय है, यह आत्मा। अनन्त को अनन्त से गुणन करने पर अनन्तानन्त होता है। जीवन की सर्वाग सुन्दरता : अनन्त को अनन्त बार दुहराने का समय न आपके पास है और न मेरे पास । इस जीवन में क्या, अनन्त जन्मों तक प्रयत्न करने पर भी हम उसके अनन्त स्वरूप को दुहरा नहीं सकते। तथापि यह अभीष्ट है कि जीवन जो अनन्तानन्त गुणों का समवाय है, अनेक रूपों में उसकी सर्वांग सुन्दरता प्रस्फुटित होनी चाहिए, उसके विभिन्न अंगों का विकास होना चाहिए। अगर जीवन का विकास एकांगी रहा, जीवन में किसी एक ही गुण का विकास कर लिया और अन्य गणों की उपेक्षा कर दी गई, तो वह विकास, वस्तुतः विकास नहीं होगा, उससे तो जीवन बेडोल एवं अनगढ़ हो जाएगा। ___ कल्पना कीजिए, कोई ऐसा व्यक्ति आपके सामने आए, जिसकी आँखें बहुत सुन्दर है, तेजस्वी हैं, पर नाक बड़ी बेडोल है, तो क्या वह आँख की सुन्दरता आपके मन को अच्छी लगेगी? किसी आदमी के हाथ सुन्दर है, किन्तु पर बेडोल ह, किसी का मुख सुन्दर है, किन्तु हाथ-पैर कुरूप और बेडौल हैं, तो इस प्रकार की सुन्दरता, कोई सुन्दरता नहीं होती। सुन्दरता वही मन को भाती है, आँखों को सुहाती है, जो सर्वांग सुन्दर होती है। जब समस्त अवयवों का, अंगोपांगों का उचित रूप से निर्माण और विकास होता है, तभी वह सुन्दरता सुन्दरता कहलाती है। विविध आयामों में : स्वरूप दर्शन १८१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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