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________________ जिस प्रकार तन की सर्वांग सुन्दरता अपेक्षित होती है, उसी प्रकार जीवन की भी सर्वांग सुन्दरता अपेक्षित है। जीवन का रूप भी सर्वांग सुन्दर होना चाहिए। वह जीवन ही क्या, जिसका एक कोण सुन्दर हो और अन्य हजारों-लाखों कोण असुन्दर तथा अभद्र हों। एक मनुष्य है, सेवा बहुत करता है, रात-दिन सेवा में जुटा रहता है, सेवा के पीछे खाना-पीना सब कुछ भला देता है, पर जब बोलता है, तो कडवा जहर! सुननेवालों के जल जाते हैं। विचार कीजिए, वह सेवा किस काम की हुई ? कुछ लोग वाणी से बोलते हैं, तो ऐसा लगता है कि दूध में चीनी घोल रहे हैं, बहुत मीठे, शीतल, शिष्ट और सुन्दर । किन्तु, हृदय में देखो तो, सर्वनाश की कैची चल रही होती हैं, बर्बाद कर देने की प्रारा मशीन चल रही होती है। किसी भोले-भाले गरीब का मिनटों में ही सब-कुछ साफ कर डालते हैं। तो, भला यह मीठी वाणी भी किस काम की? । बात यह है कि कर्म के साथ मन भी सुन्दर होना चाहिए, वाणी भी सुन्दर होनी चाहिए। मन, वाणी और कर्म का सम्यक् सन्तुलन होना चाहिए, तभी उनमें सर्वांगीणता पाएगी और वे सुन्दर लगेंगे। तीनों का समन्वय ही जीवन की सुन्दरता है और तीनों का वैषम्य जीवन की कुरूपता है। नम्रता और सरलता : एक सज्जन हैं, बड़े ही विनम्र! कभी गर्म नहीं होते, ऊँचे नहीं बोलते । लाख कड़वी बात कह लीजिए, हंसते ही चले जाएँगे, पर हंसते-हंसते आखिरी दाव ऐसा लगाएँगे कि सामने वाला चारों खाने चित्त ! बड़ी कुटिलता, धूर्तता भरी रहती है उनके मन में। नम्नता, कुटिलता छिपाने का एक कवच मात्र है, धोने की टट्टी है ! उस नम्र व्यक्ति को आप क्या कहेंगे--चीता है, धूर्त है ! चूंकि आप जानते हैं---- "नमन नमन में फर्क है, सब सरिखा मत जान । दगाबाज दूना नमें, चीता, चोर, कमान ।।" ___ केवल झुक जाना कोई नम्रता नहीं है। शिकार को देख कर चीता भी झुकता है, मालिक को जगा देखकर चोर भी झुक झुक कर छु दर की तरह किनारे-किनारे निकल जाता है और कमान (धनुष) भी तीर फेंकने से पहले इतना झुकता है कि दुहरा हो जाता है । पर क्या वह नम्रता है, वह कोई सद्गुण है ? 'जी नहीं !' मुझसे पहले ही आप निर्णय दे रहे हैं कि 'नहीं', क्योंकि वह एकांगी विनम्रता है, उसके साथ मन की सरलता नहीं है, हृदय की पवित्रता नहीं है । एकांगी विशेषता, सद्गुण नहीं हो सकती, सर्वांग वैशिष्टय ही सद्गुण का रूप ले पाता है। एक बूंद : एक प्रवाह: आप कहेंगे कि जीवन में समग्रता आनी चाहिए, यह बात तो ठीक है, पर एक साथ ही यह समग्रता, संपूर्णता कैसे आ सकती है ? समग्र गुणों को एक साथ कैसे अपना सकते हैं ? मैं मानता है, यह एक समस्या है, काफी बड़ी समस्या है। यदि गंगा के समचे प्रवाह को एक ही चुल्लू में भरना चाहें, तो नहीं भर सकते, सुमेरु को एक ही हाथ से उठाकर तोलना चाहें, तो यह असम्भव है। एक ही छलांग में यदि समुद्र को लांघने का प्रयत्न करते हैं, तो यह एक बुद्धिभ्रम ही कहा जाएगा। पर बात यह है कि एकांश ग्रहण के साथ हमारी बुद्धि उस एक अंश में ही केन्द्रित नहीं होनी चाहिए, सर्वांश ग्रहण का उदात्त ध्येय हमारे सामने रहना चाहिए। हमें बूद में ही बंद नहीं हो जाना है, सुमेरु की तलहटी के एक पत्थर पर ही समाधिस्थ नहीं हो जाना है। हाथ में चाहे एक बूंद है पर हमारी दृष्टि गंगा के सम्पूर्ण प्रवाह पर है, पैरों के नीचे सिर्फ एक फुट भूमि है, किन्तु हमारी कल्पना सुमेरु की चोटी को छू रही है, तो मैं मानता हूँ कि यह एकांश ग्रहण, सर्वांश ग्रहण की ही एक प्रक्रिया है। १८२ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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