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________________ उसका स्वभाव है। जिज्ञासा प्राणिमात्र का धर्म है। भूख लगना जैसे शरीर का स्वभाव है, वैसे ही ज्ञान की भूख जगना, प्रात्मा का स्वभाव है । किसी भी अनजानी नई चीज को देख-सुनकर हमारे मस्तिष्क में सहज ही क्या ? क्यों ? किसलिए?' के प्रश्न खड़े हो जाते हैं। हम उस नई वस्तु को, अनजानी चीज को जानना चाहते हैं। जब तक जान नहीं लेते, मन को शान्ति नहीं हो पाती, समाधान नहीं हो पाता। तात्पर्य यह है कि जब तक जिज्ञासा जीवित है, तब तक ही हमारा जीवन है । जब अन्न से अरुचि हुई, भूख समाप्त हुई, तो समझ लीजिए अब टिकट बुक हो गया है, अगली यात्रा शुरू होने को है । ज्यों ही नित्य नये-नये प्रश्नों को जानने की वृत्ति समाप्त होती है, त्यों ही ज्ञान का दरवाजा बन्द हो जाता है, जीवन की प्रगति और उन्नति रुक जाती है, प्रात्मा अज्ञान-तमस् में ठोकरें खाने लग जाती है, विकास अवरुद्ध हो जाता है। जानने की यह वृत्ति बच्चे में भी रहती है, युवक में भी जगती है और ब्ढ़ों में भी होती है। हर एक हृदय में यह वृत्ति जगती रहती है। वह जो देखता है, सुनता है उसका विश्लेषण करना चाहता है। उसका ओरछोर जानना चाहता है, बिना जाने उसकी तृप्ति नहीं होती। जिज्ञासा : ज्ञान का भंडार : आगम में हम पढ़ते हैं कि गणधर गौतम ने अमुक वस्तु देखी, अमुक बात सुनी, तो मन में संशय पैदा हुआ, कुतुहल पैदा हुमा--'जाय संसए, जाय कोउहले।' और संशय का समाधान करने तुरन्त भगवान महावीर के चरणों में पहुँच जाते हैं और पहुँचते ही प्रश्न कर देते हैं कि--"कहमेयं भन्ते !'--"भगवन् ! यह बात कैसे है ? इसमें सत्य क्या है ?" गौतम गणधर के प्रश्नों का विशाल क्रम ही जैन साहित्य और दर्शन के विकास की सुदीर्थ परम्परा है। मैं कभी-कभी सोचता हूँ, 'महान् आगम वाङमय में से यदि गौतम के प्रश्नोत्तर एवं संवाद निकाल दिए जाएँ, तो फिर पागम साहित्य में विशेष कुछ रह नहीं जाएगा।' योरोप के अंग्रेजी साहित्य में जो स्थान शेक्सपियर आदि के साहित्य का है, संस्कृत-साहित्य में जो स्थान कालिदास आदि के साहित्य का है, जैतागमों में इन सबसे कहीं बढ़ कर स्थान गौतम के दार्शनिक एवं धार्मिक परिसंवादों का है। गौतम के प्रश्न और संवाद जैन आगमों की आत्मा है। प्रश्न हैं इस साहित्य को प्रेरणा का स्रोत क्या है ? कहाँ से उठती है इसके निर्माण की तरंग? गौतम की जिज्ञासा से, संशय से। जो संशय ज्ञानाभिमुख होता है, वह बरा नहीं होता। पूर्व और पश्चिम के अनेक दार्शनिक दर्शन की उत्पत्ति और विकास संशय से ही मानते हैं। क्या? कैसे? किसलिए? यह दर्शन के विकास के मल सूत्र हैं। यही सूत्र विज्ञान के भी जनक है। भारतीय विचारक ने तो यहाँ तक कह दिया 'नहि संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति' संशय किए बिना मनुष्य कल्याण के दर्शन ही नहीं कर सकता। पुराने आचार्य ग्रन्थों का निर्माण करते समय सबसे प्रथम उसकी पृष्टभूमि, जिज्ञासा पर खड़ी करते हैं-'प्रयातो धर्म-जिज्ञासा'---अब धर्म की जिज्ञासा, जानने की इच्छा प्रारम्भ की जाती है। इस प्रकार दर्शन और धर्म के साहित्य का निर्माण हुआ है जिज्ञासा से। सिर्फ साहित्य के विकास की ही बात मैं नहीं करता, मानवजाति का विकास भी जिज्ञासा के आधार पर ही हुअा है । जिज्ञासा ने ही मुर्ख को विद्वान बनाया है, अज्ञानी को ज्ञान दिया है। हर एक आत्मा में जिज्ञासा पैदा होती है, वह उसका समाधान चाहती है और विकास करती जाती है। बात यह है कि सुख की इच्छा और स्वतन्त्रता की भावना की तरह, जिज्ञासा भी, आत्मा की सहज भावना है, स्वभाव है, उससे किसी को रोका नहीं जा सकता। रोकना गलत है। जिज्ञासा और उसके समाधान की परंपरा निरन्तर प्रवहमान रहनी चाहिए। 'प्रत्येक प्राणी ईश्वर है : पाँचवी भावना--प्रभुता की है। प्रत्येक प्राणी चाहता है कि संसार में वह स्वामी बनकर रहे, ईश्वर बनकर रहे। कि प्रात्मा को जब परमात्मा माना गया है, ईश्वर का पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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