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________________ मेरी समझ में यह बात आज तक नहीं पाई कि ऐसी ईश्वर-भक्ति से हमें क्या प्रयोजन है ? "भगवान् जिसको दुःख देना चाहता है, उसकी बुद्धि पहले नष्ट कर देता है।" मैं पूछता हूँ, बुद्धि नष्ट क्यों करता है ? उसे सद्बुद्धि क्यों नहीं दे देता, ताकि वह बुरे कार्य में फँसे ही नहीं और न फिर दुःख ही पाए। न रहेगा बाँस, न बजेगी बांसुरी ! ईश्वर किसलिए हमें असत्कर्म की प्रेरणा देता है, यह पहेली, मैं समझता हूँ, आज तक कोई सुलझा नहीं सका। दूसरी बात यह है कि कुछ विचारक कर्म का कर्तत्व तो आत्मा की स्वतन्त्र शक्ति मानते हैं, किन्तु फल भोगने के बीच में ईश्वर को ले आते हैं। वे कहते हैं कि प्राणी अपनी इच्छा से सत्कर्म-असत्कर्म करता है, किन्तु ईश्वर एक न्यायाधीश की तरह कर्म-फल को भुगताता है। जैसा जिसका कर्म होता है, उसे वैसा ही फल दिया जाता है। यह एक विचित्र बात है कि एक पिता पुत्र को बुराई करते समय तो नहीं रोके, किन्तु जब वह बराई कर डाले, तब उस पर डण्डे बरसाए। तो इससे क्या वह योग्य पिता हो सकता है ? उस पिता को आप क्या धन्यवाद देंगे, जो पहले लड़कों को खुला छोड़ देता है कि हाँ, जो जी में पाए सो करो, और बाद में स्वयं ही उन्हें पुलिस के हवाले कर देता है। क्या यह व्यवहार किसी न्याय की परिभाषा में आ सकता है ? हमारे यहाँ तो यहाँ तक कहा जाता है कि-- "जो तू देखें अन्ध के, आगे है इक कूप। तो तेरा चुप बैठना, है निश्चय अघरूप ॥" अंधे को यदि आप देख रहे हैं कि वह जिस मार्ग पर चल रहा है, उस मार्ग पर आगे बड़ा गड्ढ़ा है, खाई है या कुना है, और यदि वह चलता रहा, तो उसमें गिर पड़ेगा, ऐसी स्थिति में यदि आप चुपचाप बैठे मजा देखते रहते हैं, अन्धे को बचाने की कोशिश नहीं करते हैं, तो आप उसे गिराने का महापाप कर रहे हैं। यह नहीं होना चाहिए, कोई संकट में फंस रहा है, और आप चुपचाप उसे देखते रह जाएँ ! और, फंसने के बाद ऊपर से गालियाँ भी दें कि गधा है, बेवकूफ है ! और, फिर इंडे भी बरसाएँ। बात यह है कि ईश्वर जब सर्वशक्तिमान है, वह प्राणियों को शुभ-अशुभ कर्म का फल भुगताता है, तो उसे पहले प्राणियों को असत्कर्म से हटने की प्रेरणा भी देनी चाहिए और सत्कर्म में प्रवृत्त करना चाहिए। पर, यह ठीक नहीं कि उसे असत्कर्म से निवृत्त तो नहीं करे, उलटे दण्ड और देता रहे। आत्मा ही कर्त्ता ओर भोक्ता है : _ ईश्वर के सम्बन्ध में ये जो गुत्थियाँ उलझी हुई हैं, उन्हें सुलझाने के लिए हमें भारतीय दर्शन के प्रात्म-दर्शन को समझना पड़ेगा। आत्मा स्वयं अपनी प्रेरणा से कार्य करती है और स्वयं ही उस कर्म के अनुसार उसका फल भोगती रहती है। इसीलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में बार-बार दुहराया है। ___"उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्" आत्मा का अपने से ही कल्याण किया जा सकता है और अपने से ही अपना पतन होता है। इसलिए अपने द्वारा अपना अभ्युत्थान करो, उद्धार करो! पतन मत होने दो। यह आत्मा की स्वतन्त्रता की आवाज है, अखण्ड चेतना का प्रतीक है। कर्म कर्तृत्व, और कर्मफल-भोग दोनों प्रात्मा के अधीन हैं। अतः अात्मस्वरूप की पहचान कर, अपनी पथ-दिशा तय करना, शुद्धता को प्राप्त करना ही, दुःख-मुक्ति एवं अमरता का एकमात्र मार्ग है। जीवन पथ पर कॉट किसने बोए ? Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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